न्यायपालिका पर दबाव की बात

0
71


चुनावी गहमा—गहमी और ऐसे दौर में जब भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दों पर न्यायपालिका अहम फैसले ले रही हो अधिवक्ताओं और उसके बाद पूर्व न्यायाधीशों द्वारा देश के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर बार—बार आगाह किया जाना कि कुछ समूह विशेष और राजनीतिक दल न्यायपालिका पर दबाव डालकर न्याय व्यवस्था को प्रभावित करने और न्यायपालिका की छवि को खराब करने का प्रयास कर रहे हैं। निसंदेह चिंतनीय मुद्दा है। पहले 600 अधिवक्ताओं व अब 21 पूर्व न्यायाधीशों द्वारा चीफ जस्टिस को लिखे जा रहे इन पत्रों में यह भी बताना चाहिए था कि वह कौन—कौन से सामूहिक समूह है और राजनीतिक दल है जो न्यायपालिका पर दबाव बना रहे हैं व कौन—कौन से फैसले उनकी नजर में ऐसे हैं जिनके बारे में वह यह सोचते हैं कि यह फैसले दबाव में लिए गए हैं चीफ जस्टिस को मशवरा देने वालों ने अपने पत्र में इसका कोई उल्लेख ही नहीं किया है, यह ठीक वैसा ही है जैसे पुलिस द्वारा किसी व्यक्ति को बिना पुख्ता सबूत के गिरफ्तार किया जाना और उसे जेल भेज दिया जाना है। न्यायपालिका पर यह आरोप कदाचित भी नहीं लगाया जा सकता है कि वह किसी के दबाव में काम करती है संवैधानिक व्यवस्थाओं तथा राष्ट्रीय व सामाजिक हितों को सामने रखकर ही न्यायालय द्वारा किसी मुद्दे पर अपनी टिप्पणी और फैसले लिए जाते हैं। न्यायालय ठोस साक्ष्यों को सामने रखकर ही किसी मुद्दे पर फैसला लेता है। आज वर्तमान दौर में देश के तमाम राजनीतिक दल और उनके नेता तथा वह संवैधानिक संस्थाएं जिनके कंधों पर लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी है सब के सब न्यायपालिका के सामने खड़ी है ऐसे में न्यायपालिका ही एकमात्र उम्मीद और आशाओं के केंद्र में है जिससे देश के लोगों को यह उम्मीद है कि उनके साथ भले ही कोई अन्याय करें लेकिन न्यायपालिका उनके साथ न्याय जरूर करेगी। देश के आम आदमी का जो भरोसा और विश्वास देश की न्यायपालिका पर है उसे बनाए रखना सबसे अधिक जरूरी है। जो गलत करने वाले हैं वह चाहे कितने भी ताकतवर क्यों न हो और न्यायपालिका की फैसलों को लेकर वह भले ही सहमत हो या असहमत हो उनकी इस सहमति असहमति का न्यायपालिका पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। यह सच है कि न्यायपालिका का फैसला जिसके पक्ष में होता है वह न्यायपालिका से सहमत या संतुष्ट होता है और जिसके खिलाफ होता है वह असहमत होता है। वर्तमान दौर में न्यायालय द्वारा जो निर्भीक और न्यायोचित फैसले किये जा रहे हैं उनसे कुछ प्रभावशाली लोग और संस्थाएं व समूह बौखलाये हुए हैं इन फैसलों से उन्हें भले ही न्याय ही मिला हो लेकिन अपने अनुकूल न होने वाले फैंसलों के कारण वह नाराज तो है ही साथ ही परोक्ष रूप से कुछ भी कहा जा सकता है या किया जा सकता है। उन्हें यह भी पता है प्रत्यक्ष रूप से कुछ कह पाना और कर पाना उसके न बस की बात है और न इसका उन्हें अधिकार है। क्योंकि न्यायपालिका और मुख्य न्यायाधीश अपने फैसले लेने में सक्षम है स्वतंत्र हैं इसलिए उन्हें अपनी किसी भी आलोचना—समालोचना अथवा सुझाव से प्रेरित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here