सवालों के घेरे में चुनाव

0
148


लोकसभा चुनाव से ऐन पूर्व जिस तरह से मोदी सरकार की नीतियों पर एक के बाद एक सवाल खड़े होते जा रहे हैं उससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की मुश्किलें बढ़ना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा मोदी सरकार के चुनावी चंदे के लिए जो इलेक्टोरल बांड का कानून बनाया गया था उसे असवैधानिक बता कर रद्द किया जा चुका है। अब एसबीआई जिस तरह से इस चुनावी चंदे का हिसाब देने में आनाकानी कर रहा है उससे यह साफ हो गया है कि ऐसा खुद एसबीआई नहीं कर रहा है बल्कि सत्ता के दबाव में किया जा रहा है। जो इस बात को प्रमाणित करता है कि देश के सरकारी वित्तीय संस्थानों पर केंद्र की सत्ता ने कब्जा जमा लिया है। लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने वाली है ठीक उससे चंद दिन पूर्व चुनाव आयुक्त अरुण गोयल द्वारा अचानक अपने पद से इस्तीफा दे दिया जाना राजनीतिक दलों से लेकर एक आम आदमी तक किसी के भी गले नहीं उतर रहा है। एक अधिकारी जिसे अपनी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के महज 48 घंटे के अंदर प्रधानमंत्री या सरकार ने इस अहम पद पर बैठा दिया था जिसकी नियुक्ति पर हुए विवाद का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा हो तथा जिसको देश का मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनने की संभावना हो वह भला निजी कारणों का हवाला देकर क्यों इतने बड़े पद को छोड़ सकता है यह सोचनीय जरूर है। वह भी ऐसी स्थिति में जब तीन सदस्यीय निर्वाचन आयोग में एक पद पहले से ही खाली है और अब एकमात्र मुख्य निर्वाचन आयुक्त के कंधों पर है और अब लोकसभा चुनाव की पूरी जिम्मेदारी आ गई हो। सरकार द्वारा निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्तियों का तो पहले ही कानून अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया गया है, वर्तमान के हालात में यह बताने के लिए काफी हैं। निर्वाचन आयोग अब एक स्वतंत्र व स्वात्तधारी संस्था नहीं रह गया है और उससे अब अगर कोई निष्पक्ष चुनाव की उम्मीद रखता है तो यह मात्र एक कल्पना ही हो सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिसे चाहेंगे वही अगर निर्वाचन आयुक्त होगा तो कोई भी आयुक्त सरकार के किसी आदेश की अवहेलना भला कैसे कर सकता है। अरुण गोयल की स्थिति के बाद अब निर्वाचन आयोग द्वारा क्या 2024 के वर्तमान चुनाव आगे टालने की कोशिश तो नहीं की जा रही है। यह सवाल इसलिए भी किया जा रहा है कि जब एसबीआई इलेक्टोरल बांड का हिसाब देने में 4 महीने का समय मांग सकता है तो फिर निर्वाचन आयोग भी आयुक्तों की कमी का हवाला देकर अभी चुनाव करने में अपनी असमर्थता जता सकता है। कहा जा रहा है कि 15 मार्च तक रिक्त आयुक्त के पदों पर नियुक्तियां की जा सकती है। लेकिन अब आने वाला समय ही बतायेगा कि क्या होने वाला है। लेकिन वह चाहे नोटबंदी हो या फिर नियुक्ति हो या इलेक्टोरल बांड अपने तमाम फैसलों को लेकर जिन पर गंभीर सवाल खड़े हो चुके हैं सरकार स्वयं को संकट में फंसा हुआ महसूस जरूर कर रही है। यही कारण है कि अब निर्वाचन आयोग व लोकसभा चुनाव भी सवालों के घेरे में आ चुके हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here