वितृष्णा के मारे नेता बेचारे

0
625

वर्तमान दौर की राजनीति में अगर सबसे ज्यादा हास हुआ है तो वह नेताओं की विश्वसनीयता। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं? इसे समझ पाना संभव नहीं है। उनके द्वारा दिए जाने वाले बयानों के पीछे क्या कारण और मंशा छिपी है उसे जानना तो एकदम असंभव है। अभी चंद दिन पहले तक पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह चुनाव लड़ने की बात कह रहे थे लेकिन अब उन्होंने पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखकर चुनाव न लड़ने की मंशा जाहिर की है। त्रिवेंद्र सिंह चुनाव लड़ना चाहते थे? और अब क्यों चुनाव नहीं लड़ना चाहते? इसके पीछे क्या कारण है? या उनकी क्या मंशा है सिर्फ वह खुद ही जान सकते हैं। यह उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और राजनीतिक वितृष्णा ही है। 2017 में जब उन्हें पार्टी ने मुख्यमंत्री पद का दायित्व सौंपा था वह पल उनके राजनीतिक जीवन के सर्वाेच्च उत्कृर्ष वाले थे लेकिन 4 साल बाद जब उन्हें सीएम की कुर्सी से हटाया गया तो उन्हें ऐसा लगा जैसे उनसे उनका सब कुछ छीन लिया गया हो। उनकी कुर्सी जाने पर उनके अंदर की वेकली और खीज को सभी ने देखा। उनके विवेक ने उनका ऐसा साथ छोड़ा कि वह इस सत्य को अभी तक स्वीकार नहीं कर सके हैं कि जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं होता है। सीएम की कुर्सी पर वह हमेशा नहीं बने रह सकते थे। उन्होंने शायद सीएम बनने के बाद यह सोच लिया था कि वह अपने वर्तमान कार्यकाल के बाद भी सीएम बने रहेंगे। संभवतया आज की स्थितियों में वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी यही सोच रहे होंगे। नेताओं की यह राजनीतिक वितृष्णा ही उन्हें लिए लिए फिरती है। डॉ हरक सिंह की मुख्यमंत्री बनने की इसी वितृष्णा का परिणाम था 2016 में हुआ कांग्रेस का विभाजन। अब वह स्वयं कहते हैं मुख्यमंत्री बन पाना शायद उनकी किस्मत में ही नहीं लिखा है। ठीक वैसी ही मानसिक स्थिति हमने विजय बहुगुणा की भी देखी थी मुख्यमंत्री बनने के बाद जब उनकी कुर्सी गई तो वह भी अपना मानसिक संतुलन नहीं बनाए रख सके और उसी डाल को काट डाला जिस पर बैठे थे। जब विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गई तब हरीश रावत जैसे गंभीर नेता का संयम जवाब देते दिखा उनके दिल्ली आवास पर उनके समर्थकों का जमावड़ा था और वह कांग्रेस छोड़ने के लिए उन पर दबाव बनाए हुए थे, कुछ पल ऐसे भी रहे जब लगा कि अब हरीश रावत कांग्रेस छोड़ ही देंगे लेकिन किसी तरह वह इससे बाल—बाल बच गए। दरअसल इन महत्वकांक्षी नेताओं को न तो कोईे यह समझा सकता है कि क्या गलत और क्या सही है और न यह नेता इतिहास से कोई सबक लेने को तैयार हैं। उनकी मानसिक स्थिति और सोच पर उनका खुद का नियंत्रण नहीं है। राजनीति में उनकी असफलता का सबसे बड़ा कारण उनका सही समय पर सही निर्णय न ले पाना ही होता है। आज अगर त्रिवेंद्र सिंह रावत का मन डावंाडोल है और वह कभी चुनाव लड़ने और कभी चुनाव न लड़ने की बात कह रहे हैं तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है और न ही यह कोई हैरान करने वाली बात है। राजनीति सिर्फ उनकी महत्वाकांक्षाओं के अनुसार नहीं चल सकती है। हार के डर या किसी अन्य कारण से अगर वह चुनाव से भाग रहे हैं तो चुनाव न लड़कर भी पार्टी उन्हें फिर सीएम नहीं बना देगी या वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बना दिए जाएंगे। सूबे के त्रिवेंद्र सिंह जैसे नेताओं को गीता का वह अध्याय पढ़ने की जरूरत है जिसमें भगवान कृष्ण ने कहा कि आदमी का अधिकार सिर्फ कर्म करने पर है, परिणाम पर नहीं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here