आसान नहीं लोकतंत्र की लड़ाई

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अभी लोकसभा चुनाव के पहले चरण का ही मतदान हुआ है। लेकिन दूसरे चरण के चुनाव प्रचार जिसका आज अंतिम दिन है, से पहले ही चुनाव आचार संहिता की धज्जियंा उड़ाये जाने और चुनाव के चीरहरण की जो घटनाएं प्रस्तुत हो रही है उसे यह साफ हो गया है कि यह चुनाव देश के लोकतंत्र और संविधान ही नहीं अपितु न्यायपालिका तथा चुनाव आयोग जैसे महत्वपूर्ण संस्थानों की प्रतिष्ठा बचाये रखने के संदर्भ में एक बड़ी चुनौती बनने वाला है। अभी इस चुनाव के 6 चरण का चुनाव शेष है सातवें चरण तक पहुंचते पहुंचते स्थितियां अभी कितना विकराल रूप ले सकती है इसका कोई अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। खास बात यह है कि जहां इस चुनाव मैदान में सहभागिता करने वाले दल और नेताओं से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह अपने अच्छे आचरण और भाषणों से आदर्श की मिसाल पेश करेंगे, उन्होंने नियम कानून और भाषाई सभ्यता की तमाम सीमाएं लांघ दी है तथा वह फिर हिंदू—मुस्लिम और मंगलसूत्र जैसे मुद्दों को चुनावी चर्चा में ले आए हैं यह अत्यंत ही दुखद है कि देश के प्रधानमंत्री खुद भी चुनाव आचार संहिता का अनुपालन करते नहीं दिख रहे हैं। जिनकेे खिलाफ अब तक अकेले कांग्रेस द्वारा निर्वाचन आयोग में 17 शिकायतें दर्ज कराई जा चुकी हैं। जिनमें प्रधानमंत्री पर नफरती भाषण देने और धर्म तथा जाति के आधार पर लोगों को भड़काने का प्रयास करने के आरोप लगाए गए हैं। चुनाव आयोग इन शिकायतों को कितनी गंभीरता से लेता है या नहीं लेता यह अलग बात है लेकिन इन शिकायतों ने चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगा दिया है। देश के संवैधानिक इतिहास में सूरत जैसी घटना ने लोकतंत्र संविधान और निर्वाचन आयोग ही नहीं देश की न्यायपालिका तक को खुली चुनौती दे डाली है। आम आदमी से उसके वोट का अधिकार छीने जाने और षड्यंत्र के तहत चुनाव का चीर हरण करने वाली इस घटना को निर्वाचन आयोग या फिर न्यायपालिका ने गंभीरता से नहीं लिया तो देश में लोकतंत्र के कोई मायने ही नहीं रह जाएंगे। हालांकि यह अति संवेदनशील मामला देश के सुप्रीम कोर्ट और निर्वाचन आयोग तक पहुंच चुका है। बिना चुनाव लड़े लोकसभा चुनाव जीतने की इस पहली घटना ने यह साबित कर दिया है कि सत्ताधारी पार्टी चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर सकती है और वह किसी भी सूरत में सत्ता छोड़ेगी नहीं। अगर सब कुछ जोर जबरदस्ती और छल तथा धनबल व सत्ताबल से तय होना है तो फिर चुनाव के इस आडंबर की भी क्या जरूरत है। और क्या जरूरत है लोकतंत्र और संविधान की। पहले दौर के बाद ही चुनाव प्रचार से कुछ मुद्दों को गायब हो जाना, प्रत्याशी का गायब हो जाना, प्रस्तावको का गायब हो जाना और झूठे तथा मनगढ़ंत मुद्दों को खड़ा कर दिया जाना यही बताता है कि यह चुनाव जैसे—जैसे आगे बढ़ेगा वैसे—वैसे इस चुनाव के मायने भी बदलते जाएंगे। जो लोग इस चुनाव में यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वह अपने लिए अपनी सरकार चुनेंगे तो वह मुगालते में है। वर्तमान के सूरते हाल में लोकतंत्र को बचाने के लिए लड़ी जाने वाली यह जंग अब बहुत आगे जा चुकी है संपूर्ण चुनाव संपन्न होने व 4 जून को परिणाम के बाद ही पता चलेगा कि देश के लोकतंत्र का क्या हाल है।

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