नेताओं को रुलाती मौकापरस्त राजनीति

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अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इधर से उधर भटकने वाले नेताओं को भले ही कुछ समय के लिए ऐसा लगे कि उनकी अवसरवादी सोच उन्हें उनकी मंजिल तक ले जा रही है लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है अंतिम परिणाम के रूप में उनके सामने वैसी ही स्थिति आती है जैसी आज डॉक्टर हरक सिंह रावत के सामने हैं। जिन्होंने अपने निजी स्वार्थों के लिए कपड़ों की तरह राजनीतिक दल और अपने चुनाव क्षेत्र बदलने में कभी कोई संकोच नहीं किया। बसपा, भाजपा और कांग्रेस तथा फिर भाजपा की दौड़ लगाने वाले हरक सिंह भले ही उत्तराखंड राज्य बनने के बाद कांग्रेस और भाजपा के तीन—तीन मुख्यमंत्रियों के कैबिनेट में मंत्री बनने में सफल रहे हो लेकिन उन्हें आज जिस तरह से भाजपा ने अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर और पार्टी से 6 साल के लिए बाहर किया है उस पर अब आंसू बहाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। 2016 में कांग्रेस और हरीश रावत सरकार को संकट में डालने वाले डॉक्टर हरक को अब कांग्रेस वापस लेने को तैयार दिख रही है। लेकिन डॉ हरक सिंह और विजय बहुगुणा जैसे नेताओं का ऐसा हाल इसलिए होता है क्योंकि वह अपनी विश्वसनीयता खो चुके होते हैं। किसी भी नेता का वजूद तब ही तक बरकरार रहता है जब तक किसी राजनीतिक दल और जनता में उसकी विश्वसनीयता बनी रहती है। डॉ हरक सिंह रावत कभी लैंसडाउन तो कभी कोटद्वार और कभी अन्य कहीं सीट पर इसलिए भागते रहे हैं क्योंकि वह जनता के प्रति जवाबदेही से बचना चाहते हैं। भले ही वह स्वयं को राजनीति का कितना भी बड़ा खिलाड़ी समझते हो लेकिन अब उत्तराखंड की राजनीति में उनके पास सभी विकल्प समाप्त हो चुके हैं। क्योंकि भाजपा और कांग्रेस के अलावा अन्य कोई भी दल उत्तराखंड में वजूद में नहीं है। भाजपा ने डॉक्टर हरक सिंह के जरिए अवसर वाद की राजनीति करने वाले नेताओं को एक ऐसा संदेश दिया गया है कि कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने वाला कोई भी नेता किसी भी तरह की उछल कूद करने की हिमाकत नहीं कर सकता है। भाजपा में चुपचाप पड़े रहना अब इन दलबदलूओं की मजबूरी होगी। भले ही उन्हें पार्टी टिकट दे या न दे, उन्हें संगठन में कोई पद दे या न दे वह चुपचाप सब कुछ सहते रहेंगे और भाजपा का गुणगान करते रहेंगे, यही अब उनकी किस्मत है और मजबूरी भी। हरीश रावत अब इन नेताओं के सामने अपनी गलती और प्रायश्चित करने की शर्त पर ही वापसी की बात कर रहे हैं। उसके पीछे का संदेश यही है कि वह इन नेताओं को वापस नहीं आने देना चाहते हैं बल्कि उनसे नाक रगड़वाना चाहते हैं। देश और प्रदेश की राजनीति में सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं जब बड़े—बड़े नेताओं ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए अपनी मूल जड़ों से नाता तोड़ा, वह या तो दूसरे दलों में गए या फिर अलग दल बनाए लेकिन इसका उन्हें लाभ कम और नुकसान अधिक उठाना पड़ा है। बात चाहे चंद समय के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले चौधरी चरण की हो या चंद घंटों के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने वाले जगदंबिका पाल की। पंडित नारायण दत्त तिवारी की हो या फिर कल्याण सिंह की सभी के महत्वकांक्षी फैसले आत्मघाती ही सिद्ध हुए हैं। अपवाद स्वरूप चंद ही नेता ममता बनर्जी जैसे भाग्यशाली लोग रहे हैं जो अपना अस्तित्व बनाए रख पाए हैं लेकिन इस समंदर में छलांग लगाने का क्रम जारी है। यूपी के कई मंत्री व दर्जनों विधायक भाजपा छोड़कर सपा का दामन थाम चुके हैं उत्तराखंड में यह सिलसिला जारी है 10 मार्च को पता चलेगा कि इनमें से कितने डूब जाते हैं और कितने तैर पाते हैं।

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