महंगाई की मार, कब तक?

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आज फिर अखबारों में `पेट्रोल और डीजल की कीमतें सर्वकालिक उच्च स्तर पर’ हेडिंग से समाचार पढ़ने को मिला। इस समाचार में खास बात यह दिखी थी कि इतनी बड़ी खबर को संक्षिप्त समाचारों में छापा गया था। हैरानी इस बात की है कि जिस देश में प्याज की कीमतें बढ़ने पर लोग तख्ता पलट देते थे और इसे लेकर `पीएम के डिनर में सलाद से प्याज गायब’ जैसे शीर्षकों से यही मीडिया चार—चार कॉलम की खबरें छापता था तथा उस समय विपक्षी दल भाजपा के नेता छाती पीट—पीटकर महंगाई हाय—हाय के नारे लगाया करते थे। अब इस मुद्दे को जो सीधे—सीधे देश के गरीबों के पेट से जुड़ा है, मीडिया और नेता कोई भी इस पर बात तक करने को क्यों तैयार नहीं है। बीते कल एक बार फिर तेल कंपनियों ने पेट्रोल की कीमतें 25 पैसे तथा डीजल की कीमत 30 पैसे प्रति लीटर बढ़ा दी गई है अब तक आप पढ़ रहे थे पेट्रोल 100 के पास लेकिन अब डीजल भी सौ के पार हो गया है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में डीजल ने सौ का आंकड़ा छू लिया है। दिल्ली में पेट्रोल 102 के करीब व मुंबई में 108 के करीब है। अभी बीते दिन सीएनजी की कीमतों में 11 प्रति यानी 2.28 रूपये की वृद्धि की गई थी अब घरेलू रसोई गैस 900 व कमर्शियल 1736 के पार है। यही नहीं हवाई ईंधन में 5.8 फीसदी की बढ़ोतरी कर दी गई। सवाल यह है कि आखिर पेट्रोलियम एवं गैस की कीमतों की यह वृद्धि कहां जाकर रुकेगी? जब भी इनके दाम बढ़ाएं जाते हैं तब दबी जुबान से पेट्रोल डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग उठाई जाती है इसके लिए न तो केंद्र सरकार राजी है और न राज्यों की सरकारें तैयार है। क्योंकि शराब के बाद सिर्फ पेट्रोल व डीजल ही है जिनसे केंद्र व राज्य सबसे ज्यादा कमाई करते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वर्तमान में पेट्रोल के आधार मूल्य पर 134.37 व डीजल पर 116.32 फीसदी टैक्स व सेंस वसूला जा रहा है। यदि इसे जीएसटी के दायरे में अधिकतम स्तर 28: पर भी लाया जाए तो राज्य व केंद्र सरकार को 4.47 लाख करोड़ के राजस्व की हानि होगी। क्या सरकारें इतना बड़ा राजस्व का नुकसान उठाने को तैयार हो सकती है? केंद्र व राज्य सरकारों का कहना है कि विकास और जनकल्याण की योजनाओं को जारी रखने के लिए उनके पास धन कहां से आएगा। लेकिन पेट्रोल—डीजल और रसोई गैस की बढ़ती कीमतों का असर पूरी अर्थव्यवस्था को घातक सिद्ध हो रहा है। किराया और माल भाड़ा बढ़ने से तमाम आम उपभोग की वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही है। ऐसा नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारें चाहें तो पेट्रोल और डीजल पर लेने वाले ट्रैक्स व सेंस में 20—30 फीसदी की कमी कर आम आदमी को राहत नहीं दे सकती है लेकिन यह सिर्फ आम चुनाव के दौरान ही संभव हो सकता है वह भी आम आदमी को राहत देखकर उसका वोट बटोरने के लिए। ऐसा लगता है कि सत्ता में बैठे लोगों को आम आदमी के जीने मरने से कोई सरोकार रह ही नहीं गया है।

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