बहुत अनूठा है यह चुनाव

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कल तीसरे चरण में 13 राज्यों की 93 लोकसभा सीटों पर मतदान संपन्न होने के साथ ही आधा चुनाव निपट जाएगा। पहले और दूसरे चरण में 190 सीटों पर मतदान संपन्न हो चुका है। 18वीं लोकसभा के लिए होने वाले वर्तमान चुनाव कई मायनों में अब तक अन्य सभी चुनावों से अलग माना जा रहा है। 10 सालों से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा (एनडीए) सरकार केंद्र की सत्ता पर आसीन है। इस चुनाव में तमाम ऐसे मुद्दे हैं चाहे वह ईडी और सीबीआई के छापे हो और तमाम नेताओं को जिलों में ठूसा जाना हो या फिर भारी संख्या में विपक्षी दलों के नेताओं का सत्ताधारी दल में शामिल होना हो या फिर वह ईवीएम हो अथवा चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों का मसला हो या फिर इलेक्टोरल बांड जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असवैधानिक ठहरा दिया था अथवा उन पार्टी प्रत्याशियों की जिन्होंने जानबूझकर अपने नामांकन पत्रों को रद्द कराकर भाजपा को बिना चुनाव लड़े ही जीतकर संसद जाने की नई परंपरा की शुरुआत की है। कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो स्वाभाविक प्रतीत होता हो। लोकतंत्र और संविधान के नियम कानूनों को इस चुनाव में जिस तरह से दरकिनार कर दिया गया है वह अब किसी से भी दबा छुपा नहीं है। यही कारण है कि इस चुनाव से पूर्व ही इस तरह का माहौल बन चुका था कि अगर इस बार भाजपा चुनाव जीत जाती है तो न संविधान बचेगा न लोकतंत्र और न ही 2024 के बाद देश में कोई चुनाव होगा। अब तक के तमाम चुनावोंं पर गौर किया जाए तो वह जाति और धर्म के मुद्दों के ही इर्द—गिर्द घूमते रहे हैं। वह चाहे मंदिर मस्जिद के बहाने हो या फिर आरक्षण की आड़ हो लेकिन राजनीति के केंद्र में यही सब रहा है। इस चुनाव में सत्तारूड़ दल द्वारा अपने विकसित भारत और भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के मुद्दे अहम थे लेकिन अभी सिर्फ दो ही चरण का मतदान हुआ है यह मुद्दे अब पूरी तरह से हवा हो चुके हैं। कांग्रेस का घोषणा पत्र सामने आते ही सामाजिक और आर्थिक समानता का मुद्दा सबसे ऊपर निकल गया। केंद्र सरकार गरीबों के कल्याण के लिए जितनी भी योजनाएं विगत 10 सालों में लाई वह चाहे गरीबों को घर देने की बात हो या फिर किसानों की सम्मान निधि और मुफ्त गैस कनेक्शन देने की बात हो अथवा मुफ्त अनाज देने की। भले ही इन योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या कितनी भी ज्यादा क्यों न हो लेकिन इनका कोई जिक्र अब इस चुनाव में कोई मायने नहीं रखता है। एक तरफ देश की आधी से अधिक वह गरीब आबादी है जो रोज कमा कर खाने वाली है वहीं दूसरी तरफ वह करोड़ों युवा बेरोजगार है जो पढ़ लिखकर भी काम नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं। वह किसान है जो अन्नदाता कहे जाते हैं लेकिन आर्थिक विसंगतियों की मार झेल रहे हैं। यह करोड़ों करोड़ों लोग जो जमीनी स्तर पर अत्यंत ही बदहाल जीवन जीने पर मजबूर है वह अब सरकार के न तो विकसित भारत और न ही भारत को महान अर्थव्यवस्था वाला देश बनाने की बात पर भरोसा कर पा रहे हैं। ऐसी अत्यंत विसंगति पूर्ण स्थितियों में अगर यह चुनाव हो रहा है तो यह भी स्वाभाविक है कि फिर नेताओं द्वारा अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए झूठ फरेब के साथ अन्य तमाम तरह के हथकंडे भी आजमाने से नहीं चूक रहे हैं जिनके दम पर वह चुनाव जीतने की उम्मीद लगाए बैठे हैं। लेकिन इस देश की जनता इस दौर में क्या सोचती है और क्या फैसला करती है इसका पता आने वाले 4 जून को ही चल सकेगा लेकिन यह सत्य है कि यह चुनाव देश की भावी राजनीति ही नहीं लोकतंत्र को भी नई दिशा प्रदान करेगा।

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