गठबंधन की मुश्किलें बढ़ीं

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पांच राज्यों के चुनावी नतीजोें के बाद इंडिया गठबंधन की मुश्किलें अब बढ़ती दिख रही हैं। कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे के दिल्ली आवास पर होने वाली इंडिया महागठबंधन की बैठक को फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। आज होने वाली इस प्रस्तावित बैठक के बारे में कहा जा रहा है कि वह अब इस महीने के अंतिम सप्ताह में होगी। चुनावी नतीजों के बाद गठबंधन के सहयोगी दलों के तमाम नेताओं की जो प्रतिक्रियाएं कांग्रेस को लेकर आई थी उनसे यह संकेत मिलने लगे थे कि वह कांग्रेस के प्रदर्शन से संतुष्ट नहीं है और गठबंधन में उतनी तवज्जो भी देने के पक्ष में नहीं है जितनी दी जा रही है। सच यह है कि इन विधानसभा चुनावों में गठबंधन के फार्मूले पर काम नहीं किया गया। तमाम दल और उनके नेताओं की सोच और तर्क यही रहा कि इंडिया महागठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव 2024 के लिए बनाया गया है उसका किसी भी राज्य विधानसभा चुनाव से कोई सरोकार नहीं है। राज्यों के चुनाव में सभी अपने—अपने दम पर चुनाव लड़े। लेकिन इस महागठबंधन के नेताओं की यह सोच गलत थी। उन्हें यह पहले से पता था कि अगर कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहता है तो भाजपा इसे कांग्रेस नहीं महागठबंधन की नाकामी के तौर पर प्रदर्शित करेगी। भले ही कांग्रेस आशातीत प्रदर्शन करने में नाकाम साबित हुई हो लेकिन जिन दो राज्यों में राजस्थान और मध्य प्रदेश में उसे हार का सामना करना पड़ा है वह कोई अप्रत्याशित हार नहीं है। इसकी संभावना पहले से ही दिखाई दे रही थी, हां छत्तीसगढ़ में उसकी दोबारा सरकार बनने की संभावना थी जो नहीं बन सकी लेकिन कांग्रेस ने इन तीनों ही राज्यों में जितनी जितनी सीटें जीती है वह कांग्रेस की करारी हार या उसके सुपड़ा साफ होने जैसी स्थिति भी नहीं है। लेकिन विडंबना यह है कि कांग्रेस ने तेलंगाना में जीत हासिल की है अब गठबंधन के सहयोगी उसका जिक्र तक करने को तैयार नहीं है। और वह कांग्रेस पर कटाक्ष करने में लगे हुए हैं। गठबंधन के सहयोगी दलों ने वह तो किया नहीं जो उन्हें इन चुनावों के दौरान करना था लेकिन वह सब जरूर किया जो नहीं करना चाहिए। मध्य प्रदेश में सपा नेता अखिलेश यादव कांग्रेस को वोट न देने की अपील मतदाताओं से करते दिखे। सवाल यह है कि कांग्रेस के बारे में तमाम तरह की बातें करने वाले सहयोगी महागठबंधन के नेताओं ने मध्य प्रदेश या राजस्थान अथवा छत्तीसगढ़ में खुद कौन से झंडे गाढ़ दिए हैं लेकिन अब दल कांग्रेस को तीन राज्यों में मिली हार के बाद उसकी औकात की बात कर रहे हैं। गठबंधन के नेताओं को यह अच्छे से समझ लेना चाहिए कि इससे उनका अपना और महागठबंधन का कुछ भी भला होने वाला नहीं है। उन्हें इसका नुकसान ही होगा। चुनाव में हार जीत भले ही कोई मायने न रखती हो और गठबंधन की राजनीति में निजी स्वार्थ सबसे बड़ी बाधा रहे हो लेकिन इस समय इन चुनाव परिणामों के बाद जिस तरह की क्रिया प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वह महागठबंधन की गांठो को जरूर ढीला कर रही है। अगर हालात यही रहते हैं तो चुनाव तक इस गठबंधन में यह दरारे और भी अधिक बड़ी हो सकती हैं। इन चुनाव नतीजों के बाद भाजपा का जोश जितना हाई दिखाई दे रहा है वह गठबंधन की बड़ी मुश्किल बन सकता है। वैसे भी जब से देश में गठबंधन की राजनीति शुरू हुई है उसके तजुर्बे कोई अच्छे नहीं रहे हैं चुनाव से पूर्व या बाद में किए जाने वाले गठबंधनों में राजनीतिक अस्थिरता हमेशा ही बनी रही है। लेकिन कांग्रेस के कमजोर होने के बाद इसके अलावा अन्य दलों के पास कोई विकल्प भी शेष नहीं बचा है। भाजपा का कोई एक दल कम से कम वर्तमान के हालात में तो मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। भाजपा को इसका प्रमुख लाभ भी मिल रहा है विपक्ष इस तरह आपसी खींचतान में लगा रहे भाजपा के लिए इससे अच्छा भला और क्या हो सकता है।

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