चुनावी चंदा या भ्रष्टाचार का फंडा

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बीते कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब छत्तीसगढ़ में चुनावी जनसभा को संबोधित कर भ्रष्टाचार के खिलाफ बोल रहे थे उस दौरान राजस्थान में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के एक अधिकारी और उसके एक सहयोगी को 15 लख रुपए की रिश्वत लेते रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया था तथा देश की सर्वाेच्च अदालत द्वारा राजनीतिक दलों को बांड के जरिए मिलने वाले धन के मामले की सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग को चंदे का ब्यौरा अदालत को देने का आदेश दिया जा रहा था। इन तीन घटनाओं का हम जिक्र इसलिए कर रहे हैं क्योंकि यह तीनों ही मुद्दे भ्रष्टाचार से जुड़े हुए हैं। प्रधानमंत्री के संबोधन की बात का महत्व इसलिए भी कुछ नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इस तरह की बयान बाजी लंबे समय से सत्ताधारी नेताओं द्वारा की जाती रही है। लेकिन ईडी के किसी अधिकारी का रंगे हाथों रिश्वत लेते पकड़े जाना एक अति चिंता का विषय नहीं है विषय इसलिए आवश्यक है क्योंकि ईडी और सीबीआई जैसी शीर्ष जांच संस्थाओं का उद्देश्य भ्रष्टाचार रोकना है अगर इन संस्थाओं के अधिकारी ही भ्रष्टाचार में संलिप्त होते हैं या है तो इसके गठन का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। ईडी के एक सहायक निदेशक की यह गिरफ्तारी इसलिए भी चिंतनीय है क्योंकि यह सरकार को भी संदेह के घेरे में खड़ा करती है और सरकार के प्रति आम जनता के विश्वास को खत्म करती है। यह कोई पहली मर्तबा नहीं है जब ईडी या सीबीआई के किसी अधिकारी को भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़ा गया हो। अभी बीते साल खुद सीबीआई ने अपने चार इंस्पेक्टर्स को रिश्वत लेते हुए पकड़ा था। इसके अलावा भी अनेक उदाहरण हैं जो ईडी और सीबीआई के माथे पर भ्रष्टाचार के कलंक के रूप में मौजूद हैं। इसलिए यह कहा जाता है कि सीबीआई और ईडी कोई दूध की धुली हुई नहीं है साथ ही इन्हें सत्ता का तोता कहा जाना भी बेवजह प्रचलित नहीं हुआ है। अब थोड़ी बात करते हैं उस चुनावी चंदे की जो भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा फंडा है। अपने इस फंडे को और भी अधिक कारगर बनाने के लिए सरकार द्वारा जो गुमनाम चुनावी बांड का तरीका खोजा गया था उसे लेकर तमाम जनहित याचिकाएं दायर होने पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पर सुनवाई की जा रही है। गुमनाम चुनावी चंदे के लिए शुरू की गई इस बांड योजना के तहत सत्तारूढ़ भाजपा को 9.191 करोड़ का चंदा मिला है जो सभी अन्य राजनीतिक दलों को मिले चंदे का साठ फीसदी है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस चंदे को दान का नाम दिया जाता है। यही नहीं पूर्व समय में उघोग समूहों और घरानों को अपनी शुद्ध आय (मुनाफे) का एक फीसदी राजनीतिक चंदे के रूप में देने का कानून था लेकिन यह व्यवस्था फेल हो चुकी है क्योंकि प्रत्यक्ष में इसे दिखाया कुछ जाता है और परोक्ष में दिया कुछ जाता है। आमतौर पर उघोगपति व कारोबारी अपने काले धन को खपाने के लिए या फिर अपने राजनीतिक संरक्षण के लिए भी नेताओं और राजनीतिक दलों को दान देते हैं। देश में ऐसे दानदाताओं की कोई कमी नहीं है जो किसी मजबूर या आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति या समुदाय के लिए एक फूटी कौड़ी भी खर्च न करें लेकिन नेताओं व राजनीतिक दलों को दान देकर उन्हें उपकृत करने में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं। यही दान (काला) धन इनके द्वारा चुनाव में धूल और धुआं बनकर उड़ाया जाता है और भ्रष्टाचार मिटाने का वायदा भी जनता से किया जाता है। ऐसी स्थिति में जब किसी सरकार या संस्था की नींव ही भ्रष्टाचार पर रखी गई हो वहां अगर चारों ओर भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार नहीं होगा तो और क्या होगा उसे न कोई सीबीआई रोक सकती है और न ईडी।

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