अतिक्रमण समाधानहीन मुद्दा

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा नैनीताल हाईकोर्ट के उस फैसले पर एक माह की रोक लगाकर जिसमें हाईकोर्ट ने 20 दिसंबर को हल्द्वानी में रेलवे की जमीन से अतिक्रमण हटाने के आदेश दिए थे, प्रभावित 50 हजार लोगों के घरों को फिलहाल टूटने से बचा लिया गया है। जिस मानवीयता को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया है उसे गलत नहीं कहा जा सकता है। वैसे भी कानूनी तौर पर खराब मौसम में कोई किसी का घर तोड़ कर बेघर नहीं कर सकता वह भले ही अवैध निर्माण के दायरे में आता हो। फिर जिस अतिक्रमण को हटाने की पहल अब हो रही है वहां रहने वाले लोग बीते 50—60 सालों से यहां रह रहे हैं। इस इस क्षेत्र में सरकारी स्कूल, कॉलेज और अस्पताल बने हैं मंदिर और मस्जिद बने हुए हैं लोगों के पास पटृे और जमीन खरीद के कागजात हैं बिजली पानी के बिल है। ऐसी स्थिति में अदालत का यह सोचना कि जो लोग इतने लंबे समय से यहां रह रहे हैं उन्हें रातोंरात बेघर नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसके साथ यह भी एक सवाल है कि ऐसी स्थिति में किसी भी अतिक्रमण को कभी भी हटाया जा सकना संभव है? यह भले ही सही कि यह बड़ी—बड़ी बस्तियां यहां कोई एक दिन, एक साल या महीनों में नहीं बस गई है लेकिन दूसरी अहम बात यह भी है कि इस अतिक्रमण को हटाने के पहल जब—जब की गई वह इसी तरह कानूनी दांव—पेचों में फस कर रह गई है। 2007 से लेकर अब तक इस अतिक्रमण को हटाने के लिए यह चौथा प्रयास है जो अब नाकाम साबित होता दिख रहा है। 2007 में कुछ हिस्सों से अतिक्रमण हटाया भी गया था लेकिन कार्यवाही रुकने के बाद लोगों ने पुनः अतिक्रमण कर लिया। 2017 में ध्वस्तिकरण की कार्रवाई की सारी तैयारियां कर ली गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट से स्टे मिलने के कारण कार्यवाही आगे नहीं बढ़ सकी। 2021 में भी अतिक्रमण हटाने को नोटिस चस्पा किए गए थे और अब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद रेलवे और जिला प्रशासन की सारी तैयारियां धरी की धरी रह गई हैं जो यह बताने के लिए काफी है कि ऐसे मामलों में कोई कार्यवाही संभव नहीं है। अब दूसरा सवाल यह है कि इस तरह के अतिक्रमण कराता कौन है? और इन अवैध बसने वाली मलिन बस्तियों को सरकारी सुविधाएं कैसे पहुंचती हैं और जब इन अतिक्रमणों पर बुलडोजर चलने की नौबत आती है तो इन्हें बचाने के लिए कौन आगे आता है? हल्द्वानी में जारी अतिक्रमण के खिलाफ यह लड़ाई तो महज एक उदाहरण है। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर प्रदेश की राजधानी दून तक ऐसे अतिक्रमणों की कोई सीमा नहीं है। अगर राजधानी दून से अवैध अतिक्रमण को हटाया जाए तो आधा शहर ध्वस्त हो जाएगा। यहां भी चार—पांच साल पहले अवैध अतिक्रमण हटाने की आदेश हाईकोर्ट द्वारा दिए गए थे। दर्जनों बस्तियों व मोहल्लों में जब लाल निशान लगने शुरू हो गए तो हड़कंप मच गया मंत्री और विधायक धरने प्रदर्शनों पर उतर आए आखिरकार यह लाल निशान खुद मकान मालिकों ने रंग रोगन कर साफ कर दिए। विडंबना यह है कि यह क्रम आजादी के बाद से अविराम जारी है। लेकिन इस समस्या का न कोई आदि है न अंत। क्योंकि यह मुद्दा वोट का मुद्दा है। जिसका पुनर्वास भी कोई समाधान नहीं है।

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