धर्म और राजनीति भले ही दो अलग—अलग विषय हैं लेकिन देश के तमाम राजनीतिक दल और नेताओं द्वारा यह कहे जाने के बावजूद की धर्म का राजनीति के साथ घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। देश की राजनीति को हम धर्म व आस्था पथ पर कदमताल करते हुए कई दशकों से देखते आ रहे हैं और अब स्थिति वहां तक पहुंच गई है कि जो दल और नेता भाजपा पर धर्म और धार्मिक स्थलों की आड़ में सांप्रदायिकता की राजनीति करने का आरोप लगाते थे वह खुद भी मठ और मंदिरों तथा गुरुद्वारों में मत्था टेकने पर विवश हैं। अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस व देशभर में हुए खून खराबे से लेकर वर्तमान में होने वाले राम मंदिर निर्माण तक तथा सोमनाथ मंदिर पर हुए हमलों से लेकर उसके पुनर्निर्माण तक, धर्म और धार्मिक स्थलों से राजनीति के गहरे सरोकार रहे हैं। बीते कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अपने दो दिवसीय दौरे पर देवभूमि आए उनका यह दौरा धार्मिक दौरा था। इस दौरे को मीडिया द्वारा भी आस्था पथ पर मोदी के रूप में प्रचारित किया गया लेकिन जब केदार धाम में पूजा अर्चना के बाद प्रधानमंत्री मोदी बद्रीनाथ पहुंचे और यहां जब उन्होंने एक जनसभा को संबोधित किया जो उनके संबोधन से इस दौरे के आशय और उद्देश्य सामने आए। प्रधानमंत्री मोदी के पास राजनीतिक सफलता के कितने मंत्र हैं यह समझ पाना किसी के भी लिए असंभव है क्योंकि वह अपने समर्थकों को नित नए—नए मंत्र देते रहते हैं यहां भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी दलों पर बड़ा हमला बोलते हुए कहा कि उनकी गुलामी की मानसिकता के कारण हमारे धार्मिक स्थलों को जर्जर हालात में पहुंचा दिया गया। जो हमारी सांस्कृतिक विरासत है और समाज के प्रेरणास्रोत है उनकी उपेक्षा क्या गुलामी की मानसिकता का प्रतीक नहीं है। उन्होंने इस अवसर पर जो नया मंत्र दिया गया वह था अपनी विरासत पर गर्व और विकास का प्रयास। उनका कहना था कि हम दोनों काम कर रहे हैं आस्था केंद्रों को संवारने का काम भी कर रहे हैं और विकास का काम भी कर रहे हैं। बात काशी विश्वनाथ की हो या अयोध्या राम मंदिर निर्माण की अथवा केदारपुरी के पुनर्निर्माण की अथवा बद्रीनाथ के मास्टर प्लान और उज्जैन के भव्य मंदिर की। आस्था पथ की इस पगडंडी पर राजनीति की कदमताल को समझना कोई मुश्किल नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आज अगर यह सवाल उठाया जा रहा है कि पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा हमारे आस्था केंद्रों की उपेक्षा की गई तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। आजादी के बाद इन धार्मिक स्थलों को नजरअंदाज किए जाने का कारण वह धर्मनिरपेक्षता की राजनीति भी कही जा सकती है जो सत्ता धारियों के राजनीतिक हितों का मुद्दा रही है या फिर अन्य मजबूरियां भी हो सकती हैं। वर्तमान सरकार अगर इन्हें सजाने संवारने और उन तक आम आदमी के पहुंचने का रास्ता सुगम और सरल बना रही है तो इसमें बुराई कुछ नहीं है। लेकिन सरकार को यह काम सर्व धर्म समभाव के नजरिए से करना भी जरूरी है जिससे कि सामाजिक संतुलन बना रहे मतों के ध्रुवीकरण के लिए नहीं।