लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा के बाद भले ही योगी सरकार ने वक्त की नजाकत को भांपते हुए किसानों की सारी मांगे मान कर स्थिति पर नियंत्रण पा लिया गया हो लेकिन इसके दूरगामी परिणामों और भविष्य में किसान आंदोलन के और अधिक उग्र होने की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता है। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व ही नहीं अपितु सभी भाजपा शासित राज्यों की सरकारें इस आशंका को लेकर डरी सहमी हुई है। बीते कल उत्तराखंड सरकार द्वारा प्रदेश में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (रासुका) के तहत जिलाधिकारियों को जो अधिकार दिया गया है वह धामी सरकार के उस डर को ही प्रदर्शित करता है जिसमें वह असामाजिक तत्वों द्वारा राज्य का माहौल खराब करने की आशंकाएं जताई जा रही है। सवाल यह है कि पांच राज्यों में चुनाव से पूर्व यह माहौल बनाया किसके द्वारा जा रहा है? वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति क्या इसके पीछे सबसे अहम कारण नहीं है। जहां तक किसान आंदोलन की बात है भाजपा की सरकार इस आंदोलन को तोड़ने और दबाने के प्रयास में नाकाम होने के बाद अब इसे हिंसक आंदोलन बनाने पर आमादा दिख रही है। भाजपा नेता इसे लेकर जिस तरह की भाषा बोल रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी चार किसानों की हत्या के बाद भी न सिर्फ मौन है अपितु आजादी के 75 सालों के जश्न में व्यस्त हैं वह हैरान करने वाला है। उत्तराखंड में ऐसे क्या हालात खराब दिखाई दे रहे हैं या ऐसी कौन सी राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति दिखाई दे रही है जिसके कारण सरकार को एनएसए की जरूरत पड़ गई। चुनाव से ऐन पूर्व ३० दिसंबर तक जिलाधिकारियों को रासुका जैसे अधिकार दिए जाने के पीछे आखिर सरकार की मंशा क्या है? जहां तक बात किसान आंदोलन की है तो अब तो राज्य को इससे ऐसा कोई खतरा दिखाई नहीं दे रहा है। और न राज्य गठन से लेकर अब तक 21 सालों में सूबे में कोई ऐसा सांप्रदायिक दंगा हुआ है जैसे उत्तर प्रदेश में आमतौर पर होते रहते हैं फिर आखिर क्या कारण है? ऐसा तो नहीं कि सरकार अपने खिलाफ होने वाले राजनीतिक और क्रमिकों के आंदोलनों को दबाने के लिए एनएसए का सहारा ले रही है। कारण जो भी रहा हो लेकिन सरकार का यह कदम उसके अंदर के डर और कमजोरी को ही जाहिर करता है। यह सरकार द्वारा उठाया गया कदम एहतियातन कतई नहीं है। या तो यह सरकार के अंदर का डर है या विरोधियों को डराने का प्रयास। सरकार के इस निर्णय के विरोध में हरीश रावत आज सांकेतिक उपवास कर रहे हैं व उन्होंने कांग्रेसियों से सभी जिला मुख्यालय पर विरोध प्रदर्शन की अपील की है। घटना उत्तर प्रदेश में घटी थी लेकिन एनएसए लागू किया गया उत्तराखंड में। यह बात किसी की समझ से परे है। देश सांप्रदायिक टकराव की स्थिति में लगातार बढ़ता जा रहा है जिसे देश की एकता और अखंडता के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है। लोकतंत्र में सत्ता की ताकत से किसी भी आवाज को लंबे समय तक नहीं दबाया जा सकता। यह बात सभी नेताओं को समझना जरूरी है। कानून और जेल का भय भी देश के लोगों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार को नहीं छीन सकता है। 70 के दशक में लागू किया गया आपातकाल इसकी एक मिसाल है।