महत्वाकाशांओं की राजनीति

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उत्तराखंड राज्य अपने दो दशक के राजनीतिक सफर में राजनीति के तमाम विद्रुप रूप देख चुका है। राज्य गठन के साथ ही सूबे की अंतरिम सरकार का मुखिया बनने के लिए जो हाई वोल्टेज ड्रामा शुरू हुआ था वह 2017 के चुनाव में प्रचंड बहुमत वाली सरकार के गठन के बाद भी समाप्त नहीं हो सका। चुनावी साल में 57 विधायकों वाली भाजपा को एक नहीं दो—दो बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े अब कांग्रेस भाजपा से सवाल कर रही है कि वह जनता को बताए तो सही कि उसकी ऐसी क्या मजबूरी थी? सूबे की राजनीति में यह रवायत कोई नई बात नहीं है। आपको याद होगा कि एक समय में खंडूरी है जरूरी का नारा देने वाली इसी भाजपा ने अपने इस जनरल को ही हरा दिया था और इसके परिणाम स्वरूप भाजपा को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। उस दौर में भी लोगों ने यह सवाल उठाए थे कि भाजपा की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसने खंडूरी को कुर्सी से उतार कर डॉ निशंक को सीएम की कुर्सी पर बैठा दिया था और फिर जब डॉक्टर निशंक को कुर्सी से उतार कर खंडूरी को कुर्सी पर बैठना पड़ा था। राजनीति के इस चेहरे के पीछे सही मायने में सूबे के नेताओं की वह अति महत्वाकांक्षाए रही है जिन्होंने उन्हें पार्टी से भी बड़ा होने व स्वयंभू नेता होने का मुगालता दिया है। इन नेताओं के मुगालते का ही परिणाम था 2016 में कांग्रेस में हुआ वह विभाजन जिसने कांग्रेस को 2017 के चुनाव में अर्श से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया था। कांग्रेस और भाजपा के नेता एक स्वर से इस बात को स्वीकार करते हैं कि उन्हें कोई हरा नहीं सकता है। उन्हें अगर कोई हरा सकता है वह स्वयं हरा सकते हैं। कितनी अजब गजब बात है कि दो दशक से बारी—बारी से हार जीत का स्वाद चखने वाले यह नेता और राजनीतिक यह जानते हुए भी अपनी लीक से रत्ती भर भी हटने को तैयार नहीं है। किसी एक राजनीतिक दल के नेताओं ने भी अगर इस सत्य को समझा होता तो शायद उसे एक बार भी सत्ता से बाहर नहीं होना पड़ा होता। 6 महीने में तीन सीएम चेहरे बदलने वाली भाजपा अब अब की बार 60 पार के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतर रही है और 6 माह पहले राज्य के मुख्य सेवक बनने वाले पुष्कर सिंह धामी स्वयं को अगले 5 वर्षों तक इस पर बने रहने का सपना संजोए बैठे हैं। शायद उन्हें इस सूबे की उस विद्रूप राजनीति के चेहरे से अंजान बने रहने में ही अपनी भलाई दिख रही है। भाजपा का नारा भले ही 60 पार का हो लेकिन 70 में से 36 विधानसभा सीटों पर भाजपा में टिकट को लेकर जिस तरह की भितरघात की स्थिति बनी हुई है वह क्या गुल खिलाएगी? 10 मार्च को आने वाले चुनाव परिणामों से पता चलेगा। अभी तो भाजपा पहले उसी मिथक को तोड़ ले जो अब तक 20 सालों से जारी है कि एक बार भाजपा एक बार कांग्रेस। अगर भाजपा इस मिथक को तोड़ने में कामयाब भी हो जाती है तब भी उसकी स्थिरता और मुख्य सेवक कौन होगा इसकी भी क्या गारंटी है? भाजपा के लिए 2022 की यह डगर इतनी आसान नहीं है जितनी वह माने बैठी है और कांग्रेस के लिए तो यह और भी अधिक कठिन है। क्योंकि वहां भी महत्वाकांक्षी नागफनी का घना जंगल पसरा हुआ है। सबसे दुखद यह है कि राजनीति के इस कुरूक्षेत्र में जन सरोकार पूरी तरह विलुप्त हो गए हैं।

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