अब हम सब उत्तराखंडी

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उत्तराखंड में इन दिनों देसी और पहाड़ी के मुद्दे पर जो महासंग्राम छिड़ा हुआ है वह कोई नया मुद्दा नहीं है। राज्य गठन के साथ ही इस मुद्दे का जन्म हो गया था। राज्य बनने के बाद जब सरकार गठन की प्रक्रिया शुरू हुई थी और नित्यानंद स्वामी जिन्हें सूबे की अंतरिम सरकार का मुख्यमंत्री बनाया गया था तब उनके मनोनयन को लेकर राजधानी देहरादून में कई दिनों तक हाईटेक ड्रामा हुआ था। उन्हें थोपा हुआ देसी मुख्यमंत्री बताकर विरोध किया गया था। यह बात अलग है कि तब भी हाई कमान के आदेश के आगे सूबे के नेताओं को घुटने टेकने पड़े थे यह बात अलग है कि प्रेमचंद अग्रवाल के हालिया वाक्ये तक आते—आते यह लड़ाई अब उस मुकाम तक जा पहुंची है कि उन नेताओं को भी जिनकी कई पीढ़ियां पहाड़ में बिता चुकी है उन्हें भी अब अपनी सफाई देनी पड़ रही है कि उनके उत्तराखंडी होने पर सवाल नहीं उठाने जाने चाहिए। क्योंकि वह तो ठेठ पहाड़ी है यही नहीं कई मंत्री और विधायक तो स्वयं को पहाड़ी साबित करने के लिए यहां तक कह रहे हैं कि पहाड़ी है कौन? पहाड़ पर तो देश के तमाम राज्यों से आए लोग बसे हुए हैं इसलिए यहां कोई देसी और पहाड़ी नहीं है हम सभी लोग जो भी पहाड़ पर रह रहे हैं सभी उत्तराखंडी हैं। प्रेमचंद अग्रवाल के इस्तीफे के बाद अब तमाम नेता मीडिया के कैमरे पर आकर अपनी—अपनी सफाई इसलिए पेश कर रहे हैं क्योंकि वह भी इसकी लपेट में आते दिख रहे हैं तथा उन्हें भी अपनी कुर्सी खिसकने का डर सता रहा है। स्पीकर ऋतु खंडूरी का कहना है कि वह तो ठेठ पहाड़ी है उनके पहाड़ी होने पर सवाल उठाया जाना हैरान करने वाली बात है। इसके साथ ही वह प्रेमचंद अग्रवाल के बयान पर उनका बचाव करने के आरोपो पर कहती है कि वह एक सैन्य परिवार में पली बड़ी हुई है इसलिए अनुशासन उनके जीवन में प्रभावित रहा है। उन्होंने सदन में अनुशासन बनाए रखने के लिए ही सख्त रुख अपनाया था जिसे लेकर उन पर निशाना साधा जा रहा है। मंत्री सुबोध उनियाल का एक वीडियो जो निकाय चुनाव का है उसमें वह खुद यह कह रहे हैं कि वह बिहार से आकर पहाड़ पर बसे हैं इसके साथ ही अन्य तमाम लोगों के नाम लेकर बताते हैं कि वह राजस्थान के है और वह महाराष्ट्र तथा उड़ीसा के हैं। पहाड़ पर जो राज्य के लोग रहते हैं उन्हें बाहरी नहीं कहा जा सकता है। कई नेता अब सभी पहाड़ वासियों को उत्तराखंडी बता रहे हैं तथा किसी के भी मैदानी होने से इनकार कर रहे हैं। अगर पहाड़ पर सालों से या देश में सदियो से रहने वाले सभी लोगों को उत्तराखंडी मान लिया जाए तो फिर मूल निवास का मुद्दा ही खत्म हो जाएगा जिस पर कई नेताओं की राजनीति चल रही है। इसलिए इस मुद्दे को अब कोई बयान या साफ—सफाई समाप्त नहीं कर सकती है। देसी और पहाड़ी की यह लड़ाई अब दूर तक जाएगी। कुछ लोग सफाई देने वालों को यह कहकर भी कोस रहे हैं कि पहाड़ी और उत्तराखंडी का दम भरने वाले यह नेता मैदान की ओर क्यों भाग रहे हैं अगर पहाड़ से इतना ही प्रेम और लगाओ है तो फिर पहाड़ पर जाकर रहे वहीं से चुनाव लड़े और पहाड़ का विकास करें वही अपने बच्चों को भी रखें वह पढ़ाये। जिससे पहाड़ से पलायन की समस्या का भी कुछ हल निकल सकेगा। लेकिन यह सब बातें सिर्फ सियासी बयान बाजी तक ही सीमित है देखना यह है कि आगे यह देसी और पहाड़ी की लड़ाई राजनीति में क्या कुछ गुल खिलाती है।

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