उत्तराखंड में इन दिनों निकाय चुनाव चल रहे हैं। निकायों का कार्यकाल खत्म होने से पहले जो निकाय चुनाव कराये जाने थे समय रहते नहीं कराए गए और निकायों को प्रशासकों के हवाले कर दिया गया। खास बात यह रही कि सत्ता में बैठे लोगों ने निवर्तमान पदासीन लोगों को ही प्रशासक बना दिया जिस पर भारी हंगामा हुआ। निकायों में आरक्षण की प्रक्रिया पूर्ण होने के तत्काल बाद निकाय चुनाव का कार्यक्रम घोषित कर दिया गया तथा आरक्षण को लेकर आपत्तियां करने वालों को एक दिन का भी मौका नहीं दिया गया। नामांकन की प्रक्रिया शुरू हुई तो पर्चा भरने वालों के नामांकनों को जांच में एक तरफा रद्द किया गया जिसे लेकर विपक्षी दलों ने खूब हंगामा किया। सवाल यह है कि अगर सब कुछ सत्ता में बैठे लोगों या सरकार द्वारा अपनी मनमर्जी से ही करना है तो फिर चुनाव कराने की भी क्या जरूरत है लगभग एक दर्जन निकायों से आरक्षण को लेकर आपत्तियां हाई कोर्ट में दर्ज कराई गई और चुनाव पर रोक लगाने की मांग की गई। बीते कई दिनों से चल रही सुनवाई के बाद कल हाई कोर्ट द्वारा निकाय चुनावों पर दो बड़े फैसले सुनाए गए हैं। हाईकोर्ट के इन दोनों फैसलों पर अगर गौर किया जाए तो वह यह बताने के लिए काफी है कि यह लोकतंत्र नहीं लठ्ठतंत्र है। जहां सिर्फ सत्ता और सरकार की मनमानी ही चलती है। हाईकोर्ट ने भले ही चुनाव प्रक्रिया के बीच में आरक्षण के मुद्दों को लेकर अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया हो और कहां हो कि इससे चुनाव बाधित होगा, लेकिन इसके साथ ही आपत्तिकर्ताओं की अपील को खारिज न करते हुए इस पर सुनवाई जारी रखने तथा विजयी प्रत्याशियों के अधिकारों पर फैसला आने तक की रोक लगाकर यह मान लिया गया है कि आरक्षण गलत तरीके से किया गया है। कुल पदों के समानुपात में आरक्षण न किए जाने पर आपत्ति जताते हुए चुनाव आयोग व पक्षकारों से चार सप्ताह में जवाब मांगा गया है। जिन निकायों में जिन पदों पर आरक्षण को लेकर शिकायतें थी उन पर जीतने के बाद भी विजयी प्रत्याशियों को विशेषाधिकार नहीं मिल सकेंगे यह याचिकाकर्ताओ की बड़ी जीत है। कल ही एक अन्य मामले की सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट द्वारा हरबर्टपुर से निकाय चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस की प्रत्याशी यामिनी रोहिल्ला के उस नामांकन पत्र को भी वैध ठहरा दिया गया जिसे नामांकन पत्रों की जांच के दौरान चुनाव अधिकारियों ने निरस्त कर दिया था। हाईकोर्ट के इस फैसले से कांग्रेस में खुशी की लहर है। यह खुशी सिर्फ इसलिए नहीं है कि यामिनी रोहिल्ला चुनाव लड़ सकेंगी। खुशी इसलिए है कि इस फैसले से कांग्रेस के उन आरोपों की पुष्टि हो गई जो कांग्रेस द्वारा विपक्षी प्रत्याशियों के नामांकन पत्रों को रद्द करने के लगाए जा रहे थे। चुनाव अगर निष्पक्ष न हो तो फिर किसी भी चुनाव का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। लेकिन वर्तमान दौर की राजनीति में चुनावी निष्पक्षता समाप्त हो चुकी है।