न्यायपालिका पर बड़ी जिम्मेदारी

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देश के वरिष्ठ अधिवक्ताओं के एक समूह द्वारा देश के प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ को पत्र लिखकर न सिर्फ इस बात पर चिंता जताई गई है कि देश के कुछ शक्तिशाली समूहाेें द्वारा न्यायिक प्रक्रिया में हेर फेर कर अदालती फैसलों को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है बल्कि न्यायपालिका की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया जा रहा है। इन अधिवक्ताओं ने प्रधान न्यायाधीश को सलाह दी है कि वह किसी के दबाव में आकर फैसला न ले। अधिवक्ताओं के इस पत्र को इसलिए भी गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है क्योंकि वह सीधे तौर पर देश की सर्वाेच्च अदालत पर और प्रधान न्यायाधीश पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उनके फैसले दबावों में लिए जा रहे हैं जिससे न्यायपालिका के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। इस देश की इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि यहां अब देश के लोकतंत्र और संविधान से लेकर देश की एकता और अखंडता पर खतरे से कम शब्दों का इस्तेमाल के बिना किसी भी बात में वजन पैदा ही नहीं होता है। लोकतंत्र और संविधान का अस्तित्व खतरे में है और अब न्यायपालिका का अस्तित्व भी खतरे में बताया जा रहा है। हास्यास्पद बात यह है कि अधिवक्ताओं द्वारा प्रधान न्यायाधीश को लिखे गये खत में विभिन्न शक्तिशाली समूहों की सक्रियता की बात तो की गई है लेकिन वह शक्तिशाली समूह कौन—कौन से हैं इसका कोई भी उल्लेख नहीं किया गया है। क्या देश के नेताओं का कोई समूह है या फिर वह समूह खुद अधिवक्ताओं का समूह है। पत्र में कही गई एक लाइन जिसमें कहा गया है कि इन समूहों द्वारा दिन में आरोपी नेताओं को बचाने के लिए बहस की जाती है और रात में न्यायाधीशों को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है। अधिवक्ताओं के बीच परस्पर प्रतिद्वंतिता का होना स्वाभाविक है लेकिन जिस तरह से अधिवक्ताओं ने अपने इस सामूहिक पत्र के जरिए न्यायपालिका को भी राजनीति में घसीटने का प्रयास किया गया है उसे किसी भी स्तर पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है। बात राजनीति की हो या देश की कानून व्यवस्था अथवा सामाजिक सुरक्षा और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की एकमात्र न्यायपालिका ही तो है जिस पर देश का विश्वास टिका हुआ है, कि उन्हें न्याय मिलेगा। पीड़ित अगर कोई नेता या राजनीतिक दल भी है तो न्याय के लिए वह न्यायपालिका के पास ही जाएगा न्यायपालिका जो फैसला सुनाती है वह संवैधानिक नियम कानून के दायरे में ही होता है। फिर इन अधिवक्ताओं को अगर यह लगता है कि न्यायालय ने कोई फैसला किसी दबाव या प्रभाव में लिया है तो वह बड़ी अदालत में अपील कर सकते हैं जैसे राहुल गांधी ने अपनी संसद सदस्यता समाप्त किए जाने व मानहानि मामले में हुई सजा के खिलाफ अपील की थी। अधिवक्ताओं के इस पत्र को लेकर अब सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जो आरोप प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं वह स्वाभाविक ही है। चुनावी दौर में सभी बातें चुनावी मुद्दा बना दी जाती हैं। न्यायपालिका पर अधिवक्ताओं द्वारा अगर किसी तरह का अविश्वास जताया जाता है तो यह अत्यंत ही चिंताजनक है। न्यायपालिका की गरिमा और उसकी महत्वता एवं आम आदमी की उसमें निष्ठा बनाए रखने की जिम्मेदारी भी इन अधिवक्ताओं के ऊपर है जो इस तरह के सवाल उठा रहे हैं। ऐसे समय में जब देश की राजनीति और मीडिया दिशा भ्रम की स्थिति से गुजर रहा हो तथा झूठ को देश के लोगों के सामने ऐसे परोसा जा रहा हो कि इससे बड़ा सच कुछ हो ही नहीं सकता है। न्यायाधीश और अधिवक्ताओं की जिम्मेवारी और भी बड़ी हो जाती है।

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