उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस के जो हालात है उसके लिए कोई और नहीं खुद सूबे के कांग्रेसी नेता ही जिम्मेवार है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से पहले ही कांग्रेसी नेताओं ने जिस तरह से चुनाव न लड़ने की घोषणाएं करना शुरू कर दिया था वह उनके कमजोर मनोबल और इच्छा शक्ति का मुजाहिरा था। युद्ध के मैदान में जाने से पहले ही जो सेना हथियार डाल दे आप अगर उससे जंग जीतने की उम्मीद लगाए बैठे हैं तो यह आपकी नासमझी ही कहीं जा सकती है। भाजपा कांग्रेस की इसी कमजोरी का फायदा उठा रही है। किसी चुनाव से पहले उसके नेताओं में जिस तरह की भगदड़ मच जाती है उसको न तो केंद्रीय नेतृत्व रोक पा रहा है और न सूबाई संगठन, भले ही प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर आप किसी को भी बैठा दें उसके इर्द—गिर्द कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ताओं की भीड़ की जगह चंद चाटुकार ही मंडराते दिखते हैं। केंद्रीय नेतृत्व भले ही किसी भी ज्ञानी और अनुभवी नेता को प्रदेश प्रभारी बनाकर भेज दे लेकिन उत्तराखंड के घाघ कांग्रेसी नेता उसे असफल साबित करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। खास बात यह है कि चुनाव दर चुनाव बड़ी असफलताओं के बावजूद भी इन कांग्रेसी नेताओं का अहम सातवें आसमान पर होता है और उन्हें बीते 10 सालों में भी यह समझ नहीं आ सका है कि उन्होंने कांग्रेस को जितना नुकसान पहुंचाया है उसे 100 गुना ज्यादा नुकसान वह खुद अपना कर चुके हैं। अब लोकसभा चुनाव से पूर्व सैकड़ो कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं। भले ही इनमें चंद नाम ही ऐसे क्यों न हो जिन्हें बड़े नेताओं की श्रेणी में रखा जा सके लेकिन एक टूटते बिखरते राजनीतिक दल के लिए उसके एक भी कार्यकर्ता की अहमियत क्या होती है इसे समझने की कोशिश सूबे के किसी भी कांग्रेसी नेता ने नहीं की है। अपने लिए और अपने परिवार के लिए क्या कुछ बेहतर हो सकता है इससे ऊपर उठकर सोच पाना इन नेताओं के लिए संभव नहीं है। आपको याद होगा कि जब देश भर के कांग्रेसी नेता सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए उनके घर के बाहर जमा हुए थे तब सोनिया गांधी ने पीएम का पद त्याग करने का फैसला लेकर कांग्रेस को संजीवनी प्रदान की थी। आज के वर्तमान दौर में जब राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो व सामाजिक न्याय यात्रा के जरिए सालों से गर्मी सर्दी व बरसात में देश में क्रांति का अलख जगा रहे हैं वह खुद को प्रधानमंत्री नहीं बनने की बात कह रहे हैं। वह कांग्रेस को भले ही सत्ता दिलाने में सफल हो न हो लेकिन कांग्रेस को संजीवनी देने में सफल जरूर होंगे। ऐसी भविष्यवाणी देश के राजनीतिक पंडित कर रहे हैं। ठीक उसी दौर में उत्तराखंड के नेता क्या कर रहे हैं यह सभी के सामने है वह दिल्ली में डेरा डाले बैठे हैं किसी को अपने लिए तो किसी को अपने बेटे या बहू के लिए टिकट चाहिए। बस टिकट दे दे और अगर किसी और को टिकट दे दिया तो या तो वह कांग्रेस छोड़कर चले जाएंगे और कहीं जाने का जुगाड़ नहीं बना तो उसे ही हरवा देंगे जिसे भी टिकट मिलेगा कई नेता जो चुनाव लड़ना ही नहीं चाहते उसके पीछे अपनी पसंद की सीट से टिकट न मिलना है तो कई पहले ही यह सोच बैठे हैं कि जब हारना ही है तो फिर हारने के लिए क्यों चुनाव लड़े? ऐसी स्थिति और परिस्थितियों में उत्तराखंड कांग्रेस और कांग्रेस के किसी भी नेता का क्या भविष्य हो सकता है यह बताने की जरूरत नहीं रह जाती है।