तुष्टिकरण की राजनीति

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यह एक अजीबोगरीब बात या विडंबना ही है कि आजादी के अमृत काल के इस देश में देश की राजनीति की सुई 75 साल बाद भी मंडल कमंडल में ही उलझी हुई है। भले ही देश के नेता और राजनीतिक दल एक दूसरे पर तुष्टिकरण की राजनीति का आरोप लगाते दिख रहे हो लेकिन इस पुष्टिकरण की राजनीति से अलग कोई भी नहीं है। भले ही बात राम मंदिर की हो या यूनिफॉर्म सिविल कोड और सीएए की, घूम फिर कर सभी मुद्दे राजनीति के तुष्टीकरण पर जाकर ही टिकते हैं। आरक्षण का मुख्य आधार भले ही सामाजिक और आर्थिक समानता का हो लेकिन देश में आरक्षण की व्यवस्था लागू होने से लेकर अब तक इस मुद्दे पर तुष्टिकरण की राजनीति इस कदर हावी रही है कि आरक्षण के कोटे की सीमाएं समाप्त होने के बाद भी इसकी मांग कम होती नहीं दिख रही है। जिन्हे आरक्षण मिल चुका है उनका इस आरक्षण में कितना भला हो सका है यह अलग बात है लेकिन यह आरक्षण किसे—किसे दिया जाए और किस—किस आधार पर दिया जाए तथा कब तक दिया जाए इसका कोई सीमाएं तय नहीं है। अभी अपनी न्याय यात्रा के दौरान कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने अपने एक जन संबोधन में कहा कि पीएम मोदी जन्म से ओबीसी नहीं है। ओबीसी को लेकर आरक्षण पर जो व्यवस्था अभी केंद्र सरकार द्वारा की गई है उसके संदर्भ में उनका यह बयान आरक्षण की व्यवस्था की स्थिति को बताने के लिए काफी है। जिसे एक बार आरक्षण के दायरे में सरकार ले आई अब मजाल नहीं कोई उनसे आरक्षण की व्यवस्था को छीन ले या समाप्त करने पर उन्हें सहमत कर लिया जाए। अभी पीएम मोदी द्वारा भारत रत्न के नामों की घोषणा की गई। इसमें जिन भी नामों को शामिल किया गया क्या उनके बारे में आप या कोई भी उनके राजनीतिक निःतार्थ निकाले बिना रह सकता है। बात चाहे बिहार के कर्पूरी ठाकुर की हो या पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की हो अथवा पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के नाम की सबके पास इन भारत रत्न सम्मानों को कुछ न कुछ कहने की जरूरत है जो इन सम्मानों पर होने वाली तुष्टिकरण की राजनीति को चिन्हित करता दिखता है। इस देश का सच यही है कि यहंा राजनीति का मतलब ही तुष्टिकरण है। हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, मंदिर—मस्जिद, गुरुद्वारा, आरक्षण, क्षेत्र भाषा और महिला—पुरुष यहंा सभी कुछ राजनीतिक तुष्टिकरण के मुद्दे हो चुके हैं। विभाजन की लाइन इतनी अधिक खींची जा चुकी है कि किसी भी लाइन की यह पहचान मुश्किल हो गई है कि कौन सी लाइन किसकी है। इस सब के बीच आम आदमी और उसकी समस्याएं इतनी पीछे धकेली जा चुकी है कि वह अब राजनीति के लिए मुद्दों में भी शुमार नहीं की जा सकती है। 2024 का आम चुनाव होने वाला है क्या इस चुनाव से पूर्व आपको कहीं महंगाई की या बेरोजगारी की अथवा गरीबी की, भ्रष्टाचार की कोई चर्चा होती दिख रही है शायद नहीं। क्योंकि देश के नेताओं की नजर में अब अपनी धार्मिक धरोहरों का संरक्षण समान नागरिक संहिता और सी ए ए जैसे मुद्दे या फिर आरक्षण जैसे मुद्दे ही सबसे महत्वपूर्ण हो चुके हैं। महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण और सामान नागरिक संहिता में प्राथमिकता दिए जाने से ऐसा लग रहा है कि उनकी राजनीतिक पिपाशा और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए यही काफी है। राजनीति का पूरा फोकस सिर्फ महिला तुष्टिकरण पर आकर टिक गया है। खास बात यह है कि नेताओं द्वारा अब इस तुष्टिकरण को संतुष्टीकरण का नाम देने में भी कोई संकोच नहीं किया जा रहा है।

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