इस कुप्रथा का अंत जरूरी

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल पहले रैपिड ट्रेन जिसे नमो मोदी का नाम दिया गया है, देश को समर्पित की गई। अभी बीते दिनों भारत ने चंद्रयान की चंद्रमा पर सफल लैंडिंग कर नया इतिहास रचा था प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि भारत अब चंद्रमा पर पहुंच गया है। निसंदेह आजादी के इन 75 सालों में ज्ञान विज्ञान में भारत ने अपना डंका बजाया हो और विकास के ऐसे आयाम स्थापित किए हो जिन पर गर्व किया जाए, विश्व की पांचवी सबसे बड़ी और तेजी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था की बात हो या फिर 2045 तक देश के विकसित राष्ट्रों की सूची में शामिल होने की बात हो लेकिन अभी बहुत कुछ ऐसा है जो नहीं होना चाहिए और उसे समाप्त करने की जरूरत है। देश एक तरफ अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है वहीं देश में आज भी कुछ ऐसी प्रथाएं जारी है जो इस झूठ प्रगति और उसके लिए बजाए जाने वाले ढोल को मुंह चिढ़ा रही है। कल देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा अपने एक फैसले में मैला ढोने और हाथ से सीवर की सफाई करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश देश के सभी राज्यों की सरकारों को दिए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस बात पर नाराजगी भी जताई गई है कि तमाम प्रयासों के बाद भी देश में मैन्युअल स्कैवेंजिंग का काम जारी है और सफाई कर्मियों की मौतें हो रही है। यहंा यह उल्लेखनीय है कि 2013 में लाई गई पी एम एस आर अधिनियम में हाथ से मैला साफ करने व सीवर सफाई का काम किए जाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था की गई थी लेकिन आज भी इस अधिनियम का पालन देश के 66 फीसदी जिलों में ही हो पा रहा है 34 फीसदी जिलों में अभी भी इस पर प्रतिबंध पूर्णतया लागू नहीं किया गया है। बड़ी साफ बात है कि अगर इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया होता तो सीवर सफाई के लिए होल में उतरने वाले लोगों की मौतों का सिलसिला भी स्वतः ही रुक गया होता। अभी संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए बताया गया था कि 2023 में सीवर सफाई के दौरान नौ लोगों की मौत हुई थी। बीते 5 सालों में देश में सीवर सफाई के दौरान सरकारी आंकड़ों के अनुसार 339 लोगों की मौत की बात स्वीकार की गई है भले ही 2023 में सिर्फ 9 मौतें हुई हो लेकिन 2022 में 66 लोगों की मौत हुई थी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य सरकारों से सिर्फ हाथ से मैला ढोने या साफ करने और मैन्युअल स्कैवेंजिंग पर रोक लगाने के निर्देश ही नहीं दिए गए हैं अपितु मौत के मामलों में 30 लाख मुआवजा देने और विकलांगता की स्थिति में 20 लाख मुआवजा देने की बात भी की गई है। सवाल यह नहीं है कि उन्हें मुआवजा कितना मिले और उनके पुनर्वास तथा उत्थान के लिए क्या—क्या किया जाना जरूरी है सवाल यह है कि इस कुप्रथा का या अमानवीय प्रथा का अंत कब और कैसे होगा? आजादी के बाद देश से अनेक कुप्रथाओं का पूर्णतया अंत हो चुका है लेकिन 75 साल बाद भी यह प्रथा क्यों जीवंत बनी हुई है एक तरफ हम और हमारा संविधान और धर्म सभी को समानता का अधिकार की पैरवी करता है लेकिन इस समाज का एक वर्ग जो सर पर मानव मैला ढोनेे का काम करता आ रहा है वह आज भी उसी काम को करता रहे क्यों? खास बात यह है कि महात्मा गांधी ने इन सफाई कर्मियों को हरिजन और वर्तमान समय में इन्हें स्वच्छता कर्मी नाम देकर तो सम्मानित कर दिया गया मगर क्या इससे उन्हें समाज का सामाजिक न्याय मिल सका है। अगर मिला होता तो सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला सुनाने की शायद कोई जरूरत ही नहीं पड़ती। देखना होगा क्या राज्यों की सरकारें इस पर शत प्रतिशत अमल कर पाती है या नहीं।

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