भाजपा के विकल्प की तलाश

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लोकसभा चुनाव में अभी एक साल का समय शेष है भले ही समूचा विपक्ष भाजपा और नरेंद्र मोदी का विकल्प तलाशने में जी जान से जुटा हो लेकिन उससे कामयाबी अभी कोसों दूर दिखाई दे रही है। वहीं भाजपा और पीएम मोदी भी जीत की हैट्रिक की तैयारियों में कोई कोर कसर उठाकर नहीं रख रहे हैं जिसका ताजा उदाहरण अभी हाल में हुए त्रिपुरा, नागालैंड और असम के चुनावों में हम देख चुके हैं। विपक्ष का बिखराव और कांग्रेस की कमजोर स्थिति भाजपा की ताकत बन चुकी है। अभी कड़कड़ाती सर्दी में हमने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान खूब पसीना बहाते देखा जो लोग इस लंबी यात्रा का हिस्सा रहे वहीं नहीं अपितु एक आम आदमी भी राहुल गांधी के प्रयास की सराहना करता दिखा। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की इस कठिन यात्रा को भले ही सराहना मिली हो लेकिन इस यात्रा का कांग्रेस को उतना राजनीतिक लाभ मिल सकेगा जिसकी दरकार कांग्रेस को है इसकी संभावनाएं बहुत कम दिखाई दे रही है। कांग्रेस ने इस दौर में मल्लिकार्जुन खड़गे को पार्टी की कमान सौंप कर परिवार वादी पार्टी की छवि से बाहर निकलने का भी प्रयास किया है लेकिन खड़गे के नेतृत्व भी कोई चमत्कारिक होता दिखाई नहीं दे रहा है। कांग्रेस के अलावा विपक्षी दलों में अन्य जो भी दल शामिल हैं वह चाहे जेडीयू हो या फिर तृणमूल कांग्रेस और सपा—बसपा तथा अन्य सभी दल अभी तक अपनी—अपनी ढपली अपने—अपने राग अलापने में ही लगे दिखाई दे रहे हैं। बसपा और तृणमूल कांग्रेस द्वारा जहां किसी के भी साथ मिलकर चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया गया है वहीं सपा और अन्य दल कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखाई दे रहे हैं। कई दलों के नेता कांग्रेस को यह कहकर हाशिए पर लाने का प्रयास कर रहे हैं कि कांग्रेस को सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि अब उसका जनाधार निचले स्तर पर जा चुका है। खास बात यह है कि कुछ सर्वे के जरिए इस तरह का भी माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि आम आदमी पार्टी जैसी कोई नई सोच वाला दल ही भाजपा को चुनौती दे सकता है। वहीं कुछ नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे खाटी नेता भी अपने राजनीतिक भविष्य की सुरक्षा की तलाश में जुटे हुए हैं। भले ही यह तमाम विपक्षी दल इस सत्य को स्वीकार करने में कोई संकोच न कर रहे हो कि उनमें से कोई भी अकेला उस तरह भाजपा को चुनौती नहीं दे सकता जैसे कभी कांग्रेस दे पाती थी लेकिन इन सभी दलों की एकता और एक नेतृत्व के नाम पर एकमत संभव नहीं है। 70 के दशक में जनता दल की तरह इन दलों का एक मंच पर आना संभव नहीं है जिसने इंदिरा गांधी और कांग्रेस को धूल चटा दी थी और न अब विपक्ष के पास इमरजेंसी जैसा कोई सशक्त राजनीतिक मुद्दा है। राहुल गांधी नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल तथा अखिलेश यादव जैसे नेता भले ही विपक्षी एकता के प्रयास जारी रखने की बात कर रहे हो लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है। यही कारण है कि विपक्ष के पास भाजपा का कोई विकल्प नहीं है।

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