जोशीमठ का भू धसाव संकट गंभीर और गंभीर होता जा रहा है। न तो भूगर्भ से होने वाला जल रिसाव कम हो रहा है और न जमीन धसना थम रहा है। औली रोपवे की आधारशिला से लेकर बड़े—बड़े होटल जिनका डिस्मेंटल किया जा रहा है, छोटे—बड़े लगभग 8 भवन अब इसकी जद में आ चुके हैं। सच भले ही कितना भी डरावना क्यों न हो लेकिन उसे सार्वजनिक करने न करने से कुछ नहीं होता है। हां किसी भी खतरनाक स्थिति को बढ़ा चढ़ा कर भी प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए जिससे आम आदमी के मन में और अधिक खौफ पैदा हो। बिल्ली को सामने खड़ा देखकर कबूतर की तरह आंखें बंद कर लेने की स्थिति के परिणाम भी अच्छे नहीं हो सकते हैं यह बात संतोषजनक है कि इस आपदा में अभी तक सिर्फ संपत्तियों को ही नुकसान पहुंचा किसी तरह की जनहानि नहीं हुई है, लेकिन जोशीमठ के हालात अगर बिगड़ते दिख रहे हैं तो छिपाया भी नहीं जाना चाहिए और लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने की जरूरत है। जो स्थान रहने के लिए सुरक्षित न हो वहां डटे रहना कोई बहादुरी की बात नहीं है। जोशीमठ के आपदा ग्रस्त क्षेत्रों से अभी भी कुछ लोग हटना नहीं चाहते हैं। ठीक उसी तरह कर्णप्रयाग के बहुगुणा नगर क्षेत्र में लोगों के दर्जन भर से अधिक घरों में बड़ी—बड़ी दरारें आ गई है लेकिन लोग जर्जर घरों को छोड़ने को तैयार नहीं है, जिसमें से 3 परिवारों ने रैन बसेरे में शरण ली है बाकी का कहना है कि इस भीषण सर्दी में जाएं तो जाएं कहां? नगरपालिका ने घर खाली करने के नोटिस तो थमा दिए हैं लेकिन उनके रहने की कोई व्यवस्था नहीं की है सरकार को जोशीमठ ही नहीं कर्णप्रयाग के लोगों की सुध भी लेनी चाहिए वही गोपेश्वर तथा टिहरी के भी कई गांवों में इस तरह की समस्या से लोग जूझ रहे हैं। भू धसाव की यह समस्या सही मायने में अब जोशीमठ की समस्या नहीं रह गई है। आधा उत्तराखंड इस समस्या से ग्रसित है सही मायने में इस समस्या की जड़ में राज्य में होने वाले अनियोजित निर्माण और विकास कार्य तथा बड़ी परियोजनाएं ही है। चाहे वह ऑल वेदर रोड हो, टिहरी हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट हो अथवा ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेलवे लाइन प्रोजेक्ट हो। उत्तराखंड का पूरा पर्वतीय हिस्सा कच्चे पहाड़ों से बना है जो इस बड़े विकास को सहने में असमर्थ है। अब सवाल उठ रहा है कि शहरों की वहन शक्ति और क्षमता का आकलन किया जाना चाहिए। लेकिन अब तक स्थिति बहुत हद तक हाथ से निकल चुकी है। राज्य गठन के बाद के 20 सालों में उत्तराखंड में क्या हुआ? इसे देहरादून को देखकर ही समझा जा सकता है जहां तीन दशक पहले खपरैल और टीन शेड वाले मकान होते थे अब मैदानी क्षेत्रों की तरह बहुमंजिला इमारतें ही इमारते खड़ी दिखाई देती हैं। आबादी क्षेत्र 10 गुना बढ़ चुका है तो जमीन पर कितना भार बढ़ा होगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। उत्तराखंड जो भूकंप के दृष्टिकोण से भी संवेदनशील व अति संवेदनशील जोन में आता है उस उत्तराखंड को 2013 की केदारनाथ जैसी आपदाओं से सबक लेने की जरूरत है।