उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सहित जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया गतिमान है उन राज्यों में इन दिनों तमाम बड़े और छोटे नेताओं का इधर से उधर और उधर से इधर होने की घटनाएं भी तेजी से जारी है। भले ही चुनावी दौर में होने वाली इस तरह की दलबदल की घटनाएं कोई नई बात न सही लेकिन बीते एक दशक की राजनीति में देखा यह जा रहा था कि ज्यादातर नेताओं का रुझान भाजपा की ओर भागने का रहा था। कांग्रेस सहित तमाम क्षेत्रीय दलों के नेताओं को सिर्फ भाजपा में ही अपना राजनीतिक भविष्य दिखाई दे रहा था। पश्चिमी बंगाल के चुनावों के दौरान तमाम टीएमसी के बड़े नेता ममता का साथ छोड़कर भाजपा में चले गए थे। उससे पूर्व उत्तराखंड कांग्रेस के तमाम नेता कांग्रेस का हाथ झटक कर भाजपा की गोद में जाकर बैठ गये थे। गोवा मणिपुर सहित राज्यों के ऐसे ही उदाहरण हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश कांग्रेस के कई नेताओं के भाजपा में जाने से भारी नुकसान हुआ है। मगर अब फिर एक बार परिदृश्य कुछ बदला—बदला सा नजर आ रहा है। विपक्षी दलों को सेंधमारी के जरिए कमजोर कर मजबूती से आगे बढ़ती दिख रही भाजपा पर अब उनकी कूटनीति भारी दिख रही है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने कुछ ऐसा खेला किया कि उनका असर अब वर्तमान में उन पांच राज्यों में भी दिखाई पड़ने लगा है जहंा चुनाव होने है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के कद्दावर दलित नेता और काबीना मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य सहित अन्य तमाम भाजपा नेता भगवा का साथ छोड़कर भाग खड़े हुए हैं। जिनके जाने से भाजपा को झटका लगा है। भागने वालों का तो यह भी दावा है कि यह तो अभी शुरूआत है। बड़ी संख्या में भाजपा के विधायक व मंत्री उसका साथ छोड़ने वाले हैं। इससे पूर्व उत्तराखंड में काबीना मंत्री यशपाल आर्य और उनके विधायक पुत्र भाजपा का साथ छोड़कर कांग्रेस में आ चुके हैं। वहीं विधायक दिलीप रावत और डॉ हरक सिंह रावत सहित अन्य कई नेताओं के भाजपा छोड़ने की खबरें हवा में तैर रही है। केंद्र की मोदी सरकार ने भले ही ओबीसी वोट बैंक पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखने के लिए आरक्षण का दांव खेला हो, लेकिन अब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के दलित नेताओं का अपनी सरकार पर दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा का आरोप लगाकर भाजपा से भाग खड़ा होना भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ा करने वाला है। उत्तर प्रदेश जिसके बारे में यह कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता यहीं से होकर जाता है, अगर उत्तर प्रदेश भाजपा के हाथ से जाता है 2024 में उसका दिल्ली पर काबिज रह पाना मुश्किल हो जाएगा। उत्तर प्रदेश का 54 प्रतिशत ओबीसी मतदाता क्या ताकत रखता है? इसे भाजपा भली प्रकार से जानती है। 2017 के चुनाव में इसी मतदाता ने भाजपा को 300 पार भेजा था। अयोध्या और काशी तथा मथुरा के मुद्दे भाजपा को सत्ता में बनाए रखने के लिए काफी नहीं हो सकते हैं यह बात भाजपा भी जानती है। यह सच है कि दलबदल वाले तमाम नेता भाजपा की नीतियों के कारण नहीं भाग रहे हैं उनके अपने निजी स्वार्थों की भी एक अलग कहानी है लेकिन आपदा में इस तरह के अवसर तलाशने की कला भी उन्होंने भाजपा से ही सीखी है। भाजपा के नेताओं के लिए बदले हुए हालात में सत्ता तक पहुंचने की चुनौती और अधिक बड़ी हो गई है। उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड जहां वह अब तक अपनी आसान जीत माने बैठी थी वहां अब उसे सपा और कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिलना तय है।