सरकार के गले की फांस बनी कर्मचारियों की बर्खास्तगी

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कोर्ट में सरकार की कमजोर पैरवी से मिला स्टे
कांग्रेस ने जांच व बर्खास्तगी को बताया नौटंकी

देहरादून। सचिवालय और विधानसभा में हुई बैक डोर भर्तियों को लेकर भले ही विधानसभा अध्यक्ष और सरकार ने सख्त फैसला लेते हुए 2016 और 2021 में की गई भर्तियों को रद्द करते हुए सभी कर्मचारियों को बर्खास्तगी के नोटिस थमा कर इन कर्मचारियों की सेवाएं समाप्त कर दी गई हो, लेकिन अपनी बर्खास्तगी को गलत ठहराते हुए इन कर्मचारियों द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने और अदालत से उनकी बर्खास्तगी पर रोक लगाने से सरकार और कर्मचारियों के बीच छिड़ी यह कानूनी जंग अब बहुत लंबी चलने वाली है।
इन बर्खास्त कर्मचारियो को उनकी बर्खास्तगी के खिलाफ हाईकोर्ट से मिले स्टे के पीछे सरकार द्वारा अदालत में अपना पक्ष मजबूती से न रखा जाना बताया जा रहा है। सरकार की ओर से अधिवक्ता विजय भटृ ने इन नियुक्तियों को कामचलाऊ व्यवस्था के आधार पर नौकरी पर रखना बताया गया है और उसी को हटाए जाने का आधार भी बताया गया है। जबकि इन नियुक्तियों को अवैध ठहराए जाने के कई कारणों का उल्लेख जांच समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट में किया गया था। सरकारी अधिवक्ता द्वारा उन कारणों को अदालत के सामने नहीं रखा गया जो इसके मूल कारण में रहे हैं।
इन नियुक्तियों के लिए किसी भी तरह की विज्ञप्ति प्रकाशित नहीं की गई, न ही इसके लिए आवेदन मांगे गए, न कोई परीक्षा आयोजित की गई। तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष अपने—अपने जानने वालों या परिजनों को सिर्फ एक सादे कागज पर किए गए आवेदन पर बिना किसी औपचारिकता के इन कर्मचारियों को नियुक्तियंा दे दी गई। जबकि सुप्रीम कोर्ट की यह स्पष्ट गाइडलाइन है कि सरकारी नौकरियों में सभी को समान अधिकार मिलना चाहिए। विपक्ष कांग्रेस के नेताओं द्वारा इस पूरे जांच और बर्खास्तगी प्रकरण को सरकार की नौटंकी करार दिया जा रहा है। उनका कहना है कि सरकार ने जवाबदेही से बचने के लिए जांच कराई और फिर बर्खास्त किया अब कोर्ट में कमजोर पैरवी कर बर्खास्त कर्मचारियों को वापस लेने का रास्ता प्रशस्त कर दिया है। कोर्ट ने सरकार से 4 सप्ताह में जवाब मांगा है कि इन कर्मचारियों को बर्खास्त करने का कारण बताएं। देखना है सरकार अब आगे इस कानूनी लड़ाई को कैसे लड़ती है।

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