नाम व नारों की राजनीति कब तक?

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यह विडंबना है या वर्तमान की राजनीति की हकीकत कि अब सभी दल और नेता चुनाव जीतने के लिए सिर्फ चुनावी हथकंडो पर अधिक निर्भर रहते हैं और उन्हें अपने काम पर भरोसा नहीं रहा है। उत्तराखंड के चुनाव में भी इस बार ऐसा ही कुछ देखा जा रहा है सामाजिक सरोकार के मुद्दे चुनाव में कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भाजपा को चुनौती दे रहे हैं कि अगर भाजपा नेताओं में दम है तो बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी के मुद्दों पर चुनाव लड़ कर दिखाएं? इसमें कोई संशय नहीं है कि आज के वर्तमान में देश और समाज के सामने इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन भाजपा उत्तराखंड में फिर चाहिए धामी और मोदी की सरकार तथा यूपी में योगी और मोदी के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ रही है या फिर अयोध्या, काशी और मथुरा जैसे ही मुद्दे उछाले जा रहे हैं। भाजपा सिर्फ मोदी के नाम पर ही अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के सपने बुन रही है। 2017 के चुनाव में भाजपा ने मोदी लहर पर सवार होकर 70 में से 57 सीटें जीती थी। भाजपा की सरकार ने बीते 5 सालों में क्या किया? इस सवाल का उत्तर भले ही इस बात में छुपा हो कि अगर इस सरकार ने कुछ किया होता तो उसे चुनाव से पूर्व बेवजह दो बार मुख्यमंत्री बदलने की जरूरत नहीं पड़ी होती और आज वह छाती ठोक कर जनता से अपने काम के नाम पर वोट मांग रही होती। उसे धामी—मोदी की सरकार की बात नहीं करनी पड़ती। अच्छे दिन आने वाले है,ं हम मोदी जी को लाने वाले है,ं काला धन वापस लाएंगे, गरीबों को 15—15 लाख देकर अमीर बनाएंगे। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और किसानों की आय दोगुनी करने की बात से लेकर हर साल दो करोड़ रोजगार जैसे जितने भी नारे और वायदे भाजपा और मोदी ने किए वह कितने पूरे हुए इसका सच सभी जान चुके हैं। बात अब या तो मुफ्त राशन बांटने पर या हिंदू राष्ट्र पर आकर टिक गई है या फिर अयोध्या, काशी और मथुरा पर। भाजपा जिस तरह से एक के बाद एक नए स्लोगन, नई स्कीम पेस कर पुरानी बातों से पल्ला झाड़ती हुई आगे बढ़ने के सपने देख रही है उस पर जनता कब और कितना भरोसा कर सकती है यह अब मोदी और भाजपा दोनों को ही सोचना पड़ेगा। डिजिटल इंडिया, लोकल फार वोकल, स्मार्ट सिटी, स्टार्टअप और न जाने क्या—क्या भाजपा की डिक्शनरी में कितने शब्द हैं। लेकिन इन शब्दों के अर्थ भी कभी न कभी तो जनता खोजेगी ही। खास बात यह है कि पेट भरने के लिए रोटी और जीने के लिए कपड़ा व मकान सबसे पहले जरूरी होता है। शब्द आदमी का पेट नहीं भर सकते न अच्छे और लच्छेदार भाषणों से जनता की समस्याओं का समाधान हो सकता है। मुफ्त का राशन कोई सरकार कब तक दे सकती है और कब तक मुफ्त का इलाज संभव है? कब तक दो—चार सौ रूपये महीने की सम्मान राशियों पर लोग जिंदा रह सकते हैं। अपने सत्ता स्वार्थों के लिए देश की जनता को क्यों भिखारी बना कर आत्मनिर्भर भारत का सपना दिखाया जा रहा है? देश के नेता इस देश को कहां ले कर जा रहे हैं इसका उन्हें खुद भी अनुमान नहीं है। सिर्फ महंगाई और बेरोजगारी ही नहीं गरीबी और गरीब—अमीरों के बीच की खाई इतनी चौड़ी हो चुकी है कि इस देश को इस खाई से बाहर लाना भी असंभव हो जाएगा। अच्छा हो कि जनता को भिखारी बनाने वाली इस राजनीति और नेताओं से मुक्ति पर जनता ही कुछ अच्छे निर्णय लें और यह तभी संभव है जब नाम और नारों की बजाय जनता काम पर वोट करेगी।

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