जातीय धु्रवीकरण पर टिकी राजनीति

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पांच राज्यों में होने वाले चुनाव से पूर्व एक बार फिर दल बदल और जातीय धु्रवीकरण की राजनीति अपने चरम स्तर पर पहुंचती दिख रही है। ऐसा लगता है कि अब देश और समाज के सामने इसके अलावा कोई समस्या रह ही नहीं गई है। मंडल और कमंडल एक बार फिर चुनावी मुद्दों के केंद्र में आ गए हैं। भाजपा को राम मंदिर के साथ काशी और मथुरा जैसे मुद्दों के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा है। उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर भाजपा सहित सभी दल इतने संजीदा दिखाई दे रहे हैं कि जम्मू—कश्मीर और पश्चिम बंगाल तक के नेताओं की इसमें सक्रियता दिखाई दे रही है। पूर्व सीएम महबूबा मुफ्ती का अभी बीते कल आया यह बयान कि उत्तर प्रदेश में इस बार भाजपा को हराना 1947 में मिली आजादी से भी बड़ी आजादी होगी, से यह समझा जा सकता है कि वोटों के धु्रवीकरण के लिए क्या कुछ यह नेता करने पर आमादा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उत्तर प्रदेश में सपा के समर्थन में प्रचार करने का ऐलान कर दिया गया है। हैदराबादी नेता असदुद्दीन ओवैसी तो लंबे समय से उत्तर प्रदेश के चुनावी दंगल में हुंकार भर रहे हैं। तथा मुसलमानों को उनके वजूद और अस्तित्व के संकट पर आगाह कर रहे हैं। कमी इधर भी नहीं है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री 2022 के इस चुनावी जंग को 80—20 की लड़ाई बता रहे हैं। उनका इशारा साफ है कि 80 फीसदी हिंदू मतदाताओं के सामने 20 फीसदी मुसलमान कैसे टिक पाएंगे। इसके लिए भाजपा ने पहले से ही ओबीसी के रिजर्वेशन का कार्ड चल दिया है। भाजपा इस बात को जानती है कि अबकी बार अयोध्या, काशी की तैयारी और मथुरा की बारी से काम चलने वाला नहीं है। समाजवादी पार्टी ने भाजपा की इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए न सिर्फ तमाम छोटे—बड़े दलों से गठबंधन किए हैं अपितु भाजपा के तमाम असंतुष्ट मंत्री और विधायकों के लिए भी अपने दरवाजे खोल दिए हैं। सपा ने चुन चुन कर ओबीसी मतदाताओं पर मजबूत पकड़ रखने वाले नेताओं को सपा में शामिल किया है और इसका क्रम लगातार जारी है। कहने का अभिप्राय है कि उत्तर प्रदेश का चुनावी अखाड़ा एक बार फिर सपा और भाजपा के बीच जाति और धर्म के आधार पर आकर टिक गया है। भले ही देश के लोग और राजनीति के जानकार इस स्थिति को लेकर हैरान और परेशान हैं कि क्या अब इस देश में गरीबी बेरोजगारी, महंगाई, स्वास्थ्य सेवाएं और बदहाल शिक्षा व्यवस्था जैसे तमाम मुद्दों से राजनीति का कोई सरोकार नहीं रह गया है। दल बदल के जरिए एक दूसरे को कमजोर बनाने और जाति धर्म के आधार पर वोटों का धु्रवीकरण कराना ही राजनीति का मूल उद्देश्य बन गया है लेकिन यही सच है। जिसे हर किसी को स्वीकार करना ही पड़ेगा आने वाला दौर अभी इससे भी अधिक खतरनाक रहने वाला है देश में धर्म और जाति आधारित जनगणना का फलसफा लंबे समय से चर्चा में है उनके राजनीतिक मतलब को समझना भी जरूरी है। भले ही देश का संविधान धर्मनिरपेक्षता की पैरोंकारी करता सही लेकिन अब इसके मायने भी बदल चुके हैं उत्तर प्रदेश की राजनीति ही देश की राजनीति की दिशा और दशा तय करती है इसलिए आम चुनाव से पूर्व होने वाले यूपी विधानसभा के वर्तमान चुनाव पर देश और दुनिया की नजरें टिकी हुई है। सभी को इस बात को जानने की उत्सुकता है कि इस बार उत्तर प्रदेश की राजनीति की दिशा क्या रहती है। भाजपा के विरोध में समूचा विपक्ष एक बार फिर एकजुटता की ओर बढ़ रहा है वोटों का विभाजन कैसे हो और धु्रवीकरण कैसे हो, सारी राजनीति बस इसी पर आकर टिक चुकी है।

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