पहाड़—मैदान का चक्रव्यूह

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  • तीन मैदानी जिलों में उत्तराखंड की आधी आबादी
  • मैदान की उपेक्षा पर आम जनता व व्यापारी नाराज

देहरादून। भले ही भाजपा ने संसदीय कार्य मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल से इस्तीफा मांग लिया हो और उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया हो लेकिन पहाड़ और मैदान की राजनीति के खेल में भाजपा अब स्वयं को फंसा हुआ महसूस कर रही है। वहीं प्रेमचंद के इस्तीफे पर जश्न मनाने वाला सोशल मीडिया और उत्तराखंडियत की लड़ाई लड़ने वालों को भी इस बात का एहसास हो चुका है कि मैदान की उपेक्षा भाजपा और पहाड़ दोनों पर भारी पड़ सकती है।
प्रेमचंद अग्रवाल के इस्तीफे के बाद उनके समर्थकों में ही नहीं मैदानी क्षेत्र के लोगों और व्यापारी वर्ग में भी भारी नाराजगी देखी जा रही है। हालात इतने गंभीर रूप लेते जा रहे हैं कि मैदानी क्षेत्र की आम आवाम उन नेताओं के खिलाफ जो अपने पहाड़ की परंपरागत सीटों को छोड़कर मैदान की सीटों पर चुनाव लड़ते और जीतते रहे हैं उन्हें अब सबक सिखाने के लिए जनता ने आस्तीनें चढ़ानी शुरू कर दी है। प्रेमचंद का इस्तीफा वापस लेने की मांग कर रहे जो लोग सड़कों पर उतरकर इसका विरोध कर रहे हैं अब खुद प्रेमचंद इन लोगों से ध्ौर्य और संयम बरतने की अपील कर रहे हैं।
13 जिलों वाले उत्तराखंड के तीन मैदानी जिलों में पहाड़ के शेष 10 जिलों की बराबर आबादी है। प्रेमचंद के समर्थक अब सड़कों पर उतरकर इसलिए यह नारे लगा रहे हैं कि ट्टजिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी। पहाड़ से अपनी परंपरागत सीटों को छोड़कर पहाड़ से मैदान की ओर भागे इन नेताओं के क्षेत्र के मतदाताओं ने ही उन्हें नेता बनाया है लेकिन अब उनका कहना है कि पहाड़ के लोग अगर मैदान के नेताओं को हाशिये पर धकेलेगे जैसा कि बीते कुछ सालों से देखा जा रहा है तो वह भी अब इन नेताओं को सबक सिखाने में देर नहीं करेंगे। उनका कहना है कि पहाड़ और मैदान का राग अलापने वाले इन नेताओं को पहाड़ में जाना चाहिए वहीं खुद रहे और वही अपने बच्चों को भी रखें।
पहाड़ और मैदान की जंग के परिणामों को भांप चुके नेताओं के स्वर भी बदलने लगे हैं और वह अब इस बात पर आ गए हैं कि उत्तराखंड में रहने वाला कोई भी व्यक्ति पहाड़ और मैदानी (देसी) नहीं है हम सब उत्तराखंडी है। सूबे के नेता और भाजपा दोनों को इस बात का आभास हो चुका है कि अगर यह लड़ाई खत्म नहीं हुई तो आबादी के हिसाब से मैदान का पहाड़ की राजनीति और सत्ता दोनों पर एक दिन कब्जा हो जाएगा। यही कारण है कि अब भाजपा में इस बात पर मंथन शुरू हो चुका है कि मैदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती है अगर ऐसा किया तो सत्ता से हाथ धोना पड़ेगा।

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