यूं तो पिछले कुछ लोकसभा चुनावों के बाद से पूरे देश में कांग्रेस उतनी मजबूत नहीं रही जितना मोदी युग आने से पहले थी। लेकिन उत्तराखण्ड में 2012 से आज तक के कालखण्ड में कांग्रेस को जो नुकसान हुआ उससे उबर पाना उसके लिए बड़ी चुनौती बन चुका है। हालांकि इस दौरान कुछ समय पूर्व हुए दो उपचुनावों में कांग्रेस को जीत मिलने के बाद उसके बड़े नेताओं में उत्साह का संचार जरूर हुआ है लेकिन पिछले दिनों हुए केदारनाथ उपचुनाव में हार के बाद अब एक बार फिर उसकी राह आसान नजर नहीं आ रही है। अभी हाल में ही उत्तराखण्ड में निकाय व पचंायत चुनाव होने है। जिसके लिए उसके पास उबर पाने का अच्छा मौका भी है। लेकिन कांग्रेस नेताओं को उसके लिए एकजुट होना जरूरी है। सूबे की भाजपा सरकार की नाकामियों और मलिन बस्तियों से जुड़े कई सवालों के साथ कई कारगर हथियार कांग्रेस के पास है। जिनका इस्तेमाल अगर ठीक से किया गया तो वह आसानी से कमबैक कर सकती है। राजधानी दून जहंा निगम की सत्ता में पिछले 15 सालों से भाजपा काबिज है, मे कांग्रेस को सबसे अधिक काम करने की जरूरत है। क्योंकि राजधानी में अव्यवस्थाओं का अंबार लगा हुआ है। लेकिन कांग्रेस नेता किसी भी मुद्दे को जोरदार तरीके से उठा नहीं पा रहे है। हैरानी की बात यह है कि जब सांप निकल जाता है तब कांग्रेस नेता एक दूसरे पर आरोप—प्रत्यारोप लगाने में जुट जाते है कि किसकी वजह से ऐसा हुआ। हास्यापद बात यह है कि पूर्व कांग्रेस सरकार के समय खण्ड—खण्ड हो चुकी कांग्रेस में जो चंद बड़े चेहरे शेष बचे है वह भी एक साथ काम करने को तैयार नजर नहीं आते, हां अपवाद के रूप में उत्तराखण्ड में हुए यह तीन उपचुनावों की बात छोड़ दे तो। ऐसी स्थिति में कांग्रेस नेताओं को एकजुट होना जरूरी है नहीं तो निकाय व पंचायत चुनावों में उनकी राह आसान नहीं होगी।