आजादी का यह कैसा अमृत काल?

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इन दिनों देश अपनी आजादी का अमृत काल महोत्सव मना रहा है। वही देश के लोग यह सोच—सोच कर हैरान परेशान हो रहे हैं कि उन्होंने देश के नेताओं से ऐसी राजनीति की अपेक्षा तो नहीं की। जिस तरह की राजनीति वर्तमान दौर के नेता और राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही है या अब तक की जाती रही है। देश के लोग अब तक राजनीति के इतने रंग देख चुके हैं कि उसकी गिनती कर पाना भी मुश्किल हो गया है। इसका एक ताजा उदाहरण अभी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का वह पत्र है जो उन्होंने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के पत्र के जवाब में लिखा गया है। नड्डा ने इस पत्र में उन सौ गालियों का उल्लेख किया गया जो कांग्रेसी नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बीते 10 सालों में दी गई है। हम यहां यह हिसाब नहीं करना चाहते हैं कि किसने किसको कितनी गालियां दी? हम इस उदाहरण के माध्यम से देश के लोगों से अब यह पूछना भर चाहते हैं कि आपको कौन सी वाली राजनीति चाहिए? सांप्रदायिकता वाली राजनीति, जातिवाद वाली राजनीति, मंदिर—मस्जिद वाली अथवा आरक्षण वाली या भ्रष्टाचार वाली गाली वाली या गोली वाली। अगर इन सबमें भी कोई राजनीति आपको पसंद न हो तो और भी बहुत सारे प्रकार की राजनीति इस देश के नेताओं के पास है। झूठ वाली राजनीति है जिसके दो प्रकार हैं एक झूठ बोलने वाली है और दूसरा सच को झूठ में तब्दील कर उसका प्रचार करने वाली है। यह भी अगर पसंद न आए तो फिर डर वाली राजनीति भी है। 18वीं लोकसभा के पहले सत्र के दौरान नेता विपक्ष राहुल गांधी ने इसको बड़े मजेदार अंदाज में बयां किया था जब कुछ तस्वीरें लेकर वह सदन में पहुंचे थे। अभय मुद्रा का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि डरो मत डराओ मत। अभी—अभी अपने अमेरिका दौरे से लौटे राहुल गांधी को अब कुछ बीजेपी सांसद, विधायक आतंकवादी बताकर उन्हें जान से मारने की धमकियां यह कहते हुए दे रहे हैं कि वह उसका हाल भी उसकी दादी के जैसा कर देंगे। कोई उनकी जीभ काटने पर 11 लाख इनाम की घोषणा कर रहा है तो कोई उनकी जीभ जलाने की बात कर रहा है। डरो मत डराओ मत का संसद में उद्घोष करने वाले तथा देश के लोगों के मन से मोदी का डर मिटा देने का दावा करने वाले राहुल गांधी इन धमकियों से डरते हैं या नहीं यह तो पता नहीं लेकिन देश की राजनीति अशिस्ट भाषा और बोली के साथ—साथ जिस तरह से क्रूरता की ओर अग्रसर होती दिख रही है वह जरूर देश के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। जहां तक डर की बात है तो डर का अपना एक मनोविज्ञान भी होता है। जो आपको डराता है उसके पीछे डराने वाले का डर भी छुपा होता है। लेकिन किसी को आवश्यकता से अधिक डराया जाता है तो उसके डर का अंत भी हो जाता है। वैसे भी कहा जाता है कि अति का अंत निश्चित होता है। कहा यह भी जाता है कि जब डर लगे तब डरना भी अच्छा होता है क्योंकि जब कोई भी डर में होता है उस समय वह डराने वाले को हरा नहीं सकता है। आजादी के 75 सालों में इस देश के लोकतंत्र ने न सिर्फ युद्ध की विभीषिकाओ को देखा है अपितु आतंकवाद से लेकर राम मंदिर निर्माण आंदोलन के उन्माद तथा इमरजेंसी से लेकर स्व. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों तक इतना कुछ देख लिया और सीख लिया है कि अब इस लोकतंत्र की परिपक्व हो चुकी बुनियाद को न कोई नेता और राजनीतिक दल हिला सकता है। न वह मुफ्त की राजनीति न वह बिकाऊ मीडिया जो सत्ता की चाटुकारिता को ही अपना राज धर्म माने बैठा है। हां हम जिसे आजादी का अमृत काल बता रहे हैं वह अमृत काल की जगह संक्रमण काल जरूर प्रतीत हो रहा है।

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