आरक्षण का मुद्दा अपने जन्म के साथ ही विवादों की गठरी लेकर पैदा हुआ था। मंडल कमीशन की रिपोर्ट वाली फाइल की धूल झाड़ने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कभी सपने में भी नही सोचा होगा कि इसके दूरगामी परिणाम इतने ज्यादा खतरनाक होंगे, जिनका कभी कोई अंत नहीं होगा। प्रकार दर प्रकार के झमेले में उलझे आरक्षण के मुद्दे की गुत्थियंों को अब न तो कोई राजनीतिक दल सुलझा पा रहा है और न देश की सर्वोच्च अदालत इसका कोई ऐसा समाधान तलाश कर पा रही है जो इस उलझन या कहेंं इस अबूझ पहेली का कोई सर्वसम्मत जवाब ढूंढ सके। अभी एक अगस्त को देश की सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससीएसटी आरक्षण कोटे में राज्यों को क्रीमीलेयर को आरक्षण देने का अधिकार दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बैंच ने अपने 6—1 से दिये गये फैसलें में कहा कि राज्य सरकारें एससीएसटी आरक्षण में उप वर्गीकरण कर सकती है। मतलब साफ था कि एससीएसटी सम्वर्ग में जो आर्थिक रूप से अधिक पिछड़े लोग है उनके लिए इसमें अलग से आरक्षण कोटा निर्धारित किया जा सकता है। किन्तु एसटी एससी के लोग आज अपने समर्थक राजनीतिक दलों की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के विरोध में भारत बंद के दौरान सड़कों पर आ गये। कहीं ट्रेनों को रोक दिया गया, कहीं बंद को लेकर उत्पात किया गया तो कहीं पुलिस ने भी लाठियंा भांजी। देश भर में इस भारत बंद का व्यापक असर देखने का मिला। कारण बड़ा स्पष्ठ है सभी राजनीतिक दल अपनी—अपनी सहुलियत के हिसाब से एससीएसटी और ओवीसी वोट बैंक को साधने में लगे हुए है। अभी लोकसभा चुनाव के दौरान भी जातीय जनगणना के मुद्दे की पृष्ठभूमि में यह आरक्षण की राजनीति निहित थी। समाज में जिसकी जितनी भागीदार उसकी शासन —प्रशासन व नौकरियों में उतनी हिस्सेदारी। यह कहना कदाचित भी अनुचित नही है कि मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के समय से लेकर अब इस मुद्दे पर इस कदर राजनीति हावी रही है कि उसका कोई ओर—छोर नहीं रहा है। जातीय आधार पर जिस तरह के वर्गीकरण दर वर्गीकरण आरक्षण पाने के लिए किये जाते रहे है उनका इतिहास अब इतना पेचीदा हो चुका है कि अब उसे सुलझा पाना अंसभव हो गया है। जिसे भी आरक्षण की श्रेणी में आने का मौका मिल गया वह उसे कभी भी छोड़ने का तैयार नहीं हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस समस्या को लेकर कहा है कि जैसे रेल के डिब्बे पर चढ़ जाने पर हर एक यात्री की कोशिश रहती है कि अब इस डिब्बे में और किसी को प्रवेश नहीं करने देना है ठीक वैसा ही आरक्षण का मुद्दा है। संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर द्वारा सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को बराबरी पर लाने की जिस सोच को संविधान में रखा गया था लेकिन अगर इसकी एक समय सीमा का निर्धारण न होने के कारण यह दीर्घ जीवी समस्या का रूप ले चुकी है। जिसका कोई अंत संभव नही है। आरक्षण पाने के लिए लड़ो या आरक्षण पा लिया है तो हमेशा बनाये रखने के लिए लड़ो। इस लड़ाई का अब कभी और कहीं भी अंत नहीं हो सकता है। क्योंिक देश की जातीय वर्ण व्यवस्था की घड़ी की टिकटिक पर देश की राजनीति आकर टिक चुकी है।