लेटरल एंट्री एक बड़ा मुद्दा

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लोकसभा चुनाव के दौरान हाथ में संविधान की किताब लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी अनुसूचित, अनुसूचित जनजाति व पिछड़े वर्ग के लोगों को यह कहकर ललकार रहे थे कि तुम में दम नहीं है अपने अधिकार लेने का। अगर तुम में दम होता तो कोई भी तुम्हारे उन अधिकारों को नहीं छीन सकता था जो संविधान ने तुम्हें दिए हैं। शासन—प्रशासन में उनकी हिस्सेदारी को समझकर जिस आरक्षण के मुद्दे को जातीय जनगणना के जरिए धार दी गई वह एकदम कारगर रही थी। अब दो राज्यों के विधानसभा चुनावों से पूर्व यह आरक्षण का मुद्दा फिर से कांग्रेस या कहे कि इंडिया गठबंधन के हाथ लग गया है। सरकारी नौकरियों में कोटे के अंदर कोटा के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला और यूपी में 69 हजार शिक्षकों की भर्तियों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद अब केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न मंत्रालयों में निकाली गई 45 रिक्तियां जो आईएएस स्तर की है, ने कांग्रेस को फिर से आरक्षण का मुद्दा मुहिया करा दिया है। यहां उल्लेखनीय है कि 2018 से लेकर अब तक केंद्र सरकार 63 लोगों को बिना यूपीएससी पास किये आईएएस बनाने का काम कर चुकी है। जिनमें से 57 लोग अभी भी बड़े—बड़े ओहदों पर काम कर चुके हैं। लेटरल एंट्री के नाम पर सरकार द्वारा जो नियुक्तियां दी जा रही हैं इन्हें आप सीधे शब्दों में बैक डोर भर्तियां भी कह सकते हैं। लेटरल एंट्री सही मायने में गलत भी नहीं है अगर सरकार द्वारा किसी भी क्षेत्र के विशेषज्ञ किसी भी व्यक्ति को बड़े पदों पर नियुक्ति दी जाती है तो। लेकिन कांग्रेस का आरोप है कि 2018 के बाद सरकार द्वारा संघ और कॉर्पाेरेट से लोगों को लाकर इन महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया गया है व ऐसा आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करने की एक बड़ी साजिश के तहत किया गया है। खास बात यह है कि इसका विरोध कांग्रेस या सपा ही नहीं सरकार में शामिल लोजपा के नेता चिराग पासवान द्वारा भी किया गया है। विपक्ष का आरोप है कि सत्ता में बैठे लोगों द्वारा इन नियुक्तियों को किए जाने का खास उद्देश्य है, वही उनके द्वारा पिछड़े, दबे कुचले आदिवासियों और ओबीसी के आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। सत्ता पक्ष के लोग इस व्यवस्था को कांग्रेस के शासनकाल से ही लागू होने की बात कर जरूर रहे हैं लेकिन तब सिर्फ किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ व्यक्ति को ही नियुक्ति करने की बात थी बीते 5—6 सालों में जिस तरह से अंधाधुंध नियुक्तियां की गई और उनमें आरक्षण का ध्यान नहीं रखा गया है वह विपक्ष के लिए एक बड़ा मुद्दा है। जिसे लेकर अब सत्ता पक्ष व विपक्ष आमने—सामने है। लेकिन खास बात यह है कि यह मुद्दा ऐसे समय में सामने आया है जब चार राज्यों के चुनाव होने हैं। कांग्रेस ने जिस तरह से इस मुद्दे को हाथों—हाथ लिया उससे साफ हो गया है कि भाजपा के लिए यह मुद्दा फिर बड़े राजनीतिक नुकसान का सौदा साबित होने जा रहा है। सरकार को इस मुद्दे पर सिर्फ विपक्ष की राजनीति का ही मुकाबला नहीं करना है। सहयोगी दलों के विरोध को भी शांत करना है। सहयोगी दलों के साथ वैचारिक मतभेद और तकरार बढ़ती है तो वह सरकार के भविष्य के लिए एक बड़ा खतरा भी है।

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