हल्द्वानी में हिंसा का तांडव

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कल हल्द्वानी में जो हिंसा का तांडव हुआ उसे उत्तराखंड के लिए कदाचित भी अच्छा नहीं माना जा सकता है। राज्य के भावी भविष्य के लिए हल्द्वानी में कल जो कुछ भी हुआ वह कोई अच्छे संकेत नहीं है न सिर्फ यह हल्द्वानी बल्कि पूरे उत्तराखंड के इतिहास में पहली बार देखा जा रहा है जब किसी धार्मिक स्थल या अतिक्रमण हटाने के समय इस तरह का टकराव हुआ हो। भले ही हल्द्वानी का वह बनभूलपुरा क्षेत्र जो अवैध कब्जों और अतिक्रमण को लेकर राज्य बनने के बाद से ही खबरों की सुर्खियों में बना रहा हो लेकिन जिस तरह का हिंसक संघर्ष बीते कल हुआ जिसमें पुलिस की गोलाबारी में 2 लोगों की मौत हो गई तथा पथराव और लाठी चार्ज में 500 से अधिक लोग घायल हो गए दर्जनों वाहनों और पुलिस थाने तक को आग के हवाले कर दिया गया। वास्तव में यह कोई सामान्य घटना नहीं है। इस संघर्ष में पुलिस और पत्रकारों को भी चोटे आई है। अगर इतने व्यापक स्तर पर कोई घटना हुई है तो यह सब अचानक हो गया हो ऐसा संभव नहीं है। पुलिस प्रशासन क्या करना चाहता है इसकी जानकारी स्थानीय लोगों को थी उन्होंने विरोध की तैयारी भी कर ली थी। लेकिन यह प्रशासन और खुफिया एजेंसियों की एक बड़ी नाकामी है कि वह न तो स्थिति की गंभीरता को ठीक से भांप सके और न क्षेत्रवासियों जो कई दिनों से प्रशासनिक अधिकारियों से इसके शांतिपूर्ण समाधान के लिए गुहार लगाते थे उनकी बात को गौर से सुना गया। चार दिन पहले प्रशासन ने जिस धार्मिक स्थल और मदरसे को सील कर दिया गया था उसे तोड़ने का प्लान क्यों किया गया जबकि इस मामले पर 14 फरवरी को हाईकोर्ट में सुनवाई भी होनी थी। निसन्देह इस बड़ी घटना के पीछे प्रशासनिक स्तर पर बरती गई लापरवाही एक बड़ी वजह रही है। अगर स्थानीय प्रशासन ने थोड़ी सी समझदारी दिखाई होती या घटना की गंभीरता को समझा होता तो इस स्थिति को टाला जा सकता था। पुलिस प्रशासन को मुगालता था कि कहीं कुछ नहीं होगा। क्योंकि इससे पहले कभी भी ऐसा कुछ नहीं हुआ था। लेकिन पुलिस प्रशासन की यह भूल खुद उस पर ही इतनी भारी पड़ गई कि हजारों की संख्या में पुलिस बल की मौजूदगी के बावजूद पुलिस कर्मियों और अधिकारियों को अपनी जान बचाना भी मुश्किल हो गया। बाद में भले ही कर्फ्यू लगाकर या उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश देकर, स्कूल कॉलेज व इंटरनेट सेवाएं बंद कर हालात को काबू में कर लिया गया हो लेकिन हल्द्वानी की हिंसा और आगजनी का जो इतिहास लिखा जाना था वह लिख ही चुका है। जो घायल है वह भले ही इलाज कराकर घर लौट आए लेकिन जो लोग इस हिंसा में मारे गए उनके परिवारों के जख्म कभी नहीं भरे जा सकते हैं। हल्द्वानी में अतिक्रमण हटाने की यह जंग आगे अब क्या रूप लेगी यह तो समय ही बताएगा लेकिन धार्मिक अतिक्रमण को हटाने का यह मामला अब दूसरी दिशा में जाता दिख रहा है। जिससे उत्तराखंड की शांत वादियो में सांप्रदायिकता का जहर घुल रहा है। हल्द्वानी में इस अतिक्रमण के मामले को न्यायालीय प्रक्रिया से ही सुलझाने के प्रयास किए जाने चाहिए अभी 2022 में भी जब इस क्षेत्र के 4600 घरों पर बुलडोजर की कार्यवाही की स्थिति पैदा हुई थी तब भी टकराव व तकरार के हालात पैदा हो गए थे देश दुनिया का मीडिया हल्द्वानी में जमा हो गया था कई—कई दशक से यहां बसे लोगों को जो बिजली पानी का बिल दे रहे हैंं। घर, मकान, दुकान, स्कूल—मदरसे मंदिर—मस्जिद सब कुछ बना हो उन्हें आप कैसे उखाड़ फेंक सकते हैं। जब अवैध बस्तियां बसाई जा रही थी तब कोई उन पर ध्यान नहीं देता था और जब समस्या इतनी बड़ी हो जाती है जैसी बनभूलपुरा की हो चुकी है तब उसका समाधान लाठी डंडों से निकालने की कोशिशे होती है तब यही अंजाम होता है जो अब हम हल्द्वानी में देख रहे हैं।

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