भारत बनाम इंडिया को लेकर देश के नेताओं के बीच जो बहस छिड़ी हुई है उसके गहरे राजनीतिक निःतार्थ है। राहुल गांधी सहित जो कांग्रेस के नेता यह कहकर अपनी आत्म संतुष्टि कर लेना चाहते हैं कि विपक्षी गठबंधन का नाम आई.एन.डी.आई.ए. (इंडिया) से भाजपा और उसके नेता डर गए हैं यह पूरा सच नहीं है। कांग्रेस के नेता शायद यह भूल चुके हैं कि भाजपा ने केंद्रीय सत्ता पर काबिज होते ही कांग्रेस मुक्त भारत की बात को जोर—शोर से प्रचारित किया था और बीते 10 सालों में भाजपा अपने मकसद में बहुत हद तक कामयाब भी रही है भले ही वह कांग्रेस का और उसकी राजनीति का पूर्ण सफाया न कर सकी हो लेकिन उसने कांग्रेस को इतना कमजोर कर दिया है कि वह आने वाले कई दशक तक अपने अकेले के दम पर भाजपा को सत्ता से बाहर नहीं कर सकती है। कांग्रेस की इस स्थिति पर खुश होने वाले दल जो आज विपक्षी एकता के प्रयासों में जुटे हैं उन्हें भी अब शायद यह समझ आ गया है कि वह अब केंद्रीय सत्ता से बहुत दूर धकेले जा चुके हैं। लोकतंत्र एक बहुदलीय व्यवस्था है। अगर इसमें कोई एक राजनीतिक दल इतना सशक्त हो जाए कि उसे कोई चुनौती दे ही न सके तो वह लोकतंत्र, लोकतंत्र नहीं रह सकता है। 1970 के दशक में कुछ इसी तरह की भ्रांति और सत्ता का दम्भ कांग्रेस के अंदर भी देखा गया जब उसने इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा का नारा दिया था और अपने सत्ता स्वार्थों को सर्वाेच्च प्राथमिकता पर रखते हुए देश में आपातकाल की घोषणा करते हुए तमाम विपक्षी दलों के नेताओं को जेल में ठूस दिया था लेकिन वह 45 साल पहले के हालात थे तब से अब तक राजनीति की गंगा में बहुत पानी बह चुका है तब विपक्ष ने मिलकर न सिर्फ कांग्रेस को परास्त करने में बल्कि लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों की पुनः बहाली कर ली थी लेकिन अगर वर्तमान दौर में ऐसे हालात पैदा होते हैं तो यह काम बहुत आसान नहीं होगा। देश के लोकतंत्र और संविधान के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ को किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। सत्ता पक्ष द्वारा देश के नाम से इंडिया को हटाए जाने से आम आदमी के साथ कोई हित या अहित नहीं जुड़ा है फिर सत्ता में बैठे लोगों द्वारा इस व्यर्थ की बहस को क्यों तूल दिया जा रहा है इसके पीछे उनकी वास्तविक मंशा क्या है? क्यों वह अपनी इस मंशा पर सवाल उठाने वालों को भारत से नफरत करने वाले बताया जाता है यह वास्तव में एक दुष्प्रचार है जो इसके पीछे छिपी उनकी मंशा को दिखाता है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई और लाल कृष्ण आडवाणी के राजनीतिक कालखंड में भाजपा के नेताओं ने पूरे देश को जब शाइनिंग इंडिया साइन बोर्ड और बैनर पोस्ट से पाट दिया गया था तब उन्हें इंडिया से कोई गुरेज नहीं था न कोई परहेज था। फिर आज इंडिया शब्द में उन्हें ऐसी क्या बुराई नजर आने लगी है कि वह इसके लिए देश के संविधान को भी बदलने पर आमादा है। निश्चित तौर पर यह देश के लोकतंत्र के साथ बड़ा खिलवाड़ ही है। और इसके पीछे कोई ऐसी मंशा छिपी है जो देश की सत्ता व्यवस्था को बदलना चाहती है। सत्ता में रहकर संख्या बल के आधार पर मनमानी फैसले लेने का काम किया जा सकता है और अगर किया जाता है तो वह व्यवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं कहीं जा सकती है। देश की राजनीति किस दिशा व दशा में जा रही है यह आने वाला समय ही तय करेगा लेकिन यह संकेत शुभ नहीं है।