देश अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन 75 सालों में बहुत कुछ बदल गया है। समाज की जीवन श्ौली से लेकर सोच और समझ तक। अगर हम प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में कहें तो हमारा देश कभी सांप सपेरों वाला देश था लेकिन अब यहां हवाई चप्पल वाले भी हवाई यात्रा कर रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद भी विकास की बातें और दावे हमें खोखले क्यों लगते हैं? क्या देश के नेता जो कहते और दिखाते हैं धरातल पर सच उससे कुछ इतर है? इन 75 सालों में देश के लोगों को कितना अमृत मिला है और इस अमृत के लिए उन्हें कितना विषपान करना पड़ा है इस पर मंथन चिंतन जरूरी है। प्रधानमंत्री मोदी से किसी कार्यक्रम में एक देश के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा अभी कहा गया था कि भारत ने भले ही किसी भी क्षेत्र में कितना भी विकास किया हो लेकिन भारत की प्राथमिक शिक्षा की स्थिति विश्व में सबसे खराब है। प्रधानमंत्री मोदी के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था इसलिए इस बात को उन्होंने बस मुस्कुरा कर टाल दिया। देशभर में प्राइमरी सरकारी स्कूल और उनमें मिलने वाली शिक्षा की 75 साल बाद भी जो दयनीय स्थिति है उसका सच किसी से छिपा नहीं है। भले ही देश भर में हम चाहे जितने आईर्आटी और विश्वविघालय खोल लें तथा मेडिकल कॉलेजों की श्रंखला बना लें लेकिन आज भी देश की आधी आबादी की आर्थिक स्थिति अपने बच्चों को निजी और मिशनरी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ा पाने की नहीं है। सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना उनकी मजबूरी है। सबको शिक्षा का अधिकार की बात करने वाले किसे शिक्षा दे रहे हैं यह समझ से परे है। बात शिक्षा के बाद अगर स्वास्थ्य सेवाओं की की जाए तो कोरोना काल ने इसका सच भी देश और समाज के सामने लाकर रख दिया है। सरकार भले ही शिक्षा और स्वास्थ्य पर कितना भी बजट खर्च करती हो और अपनी आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का दंभ भरती हो लेकिन देश में जब सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं की बात आती है तो उसकी स्थिति भी प्राइमरी सरकारी स्कूलों जैसी ही दिखाई देती है। आजादी के 75 सालों में सामाजिक और आर्थिक समानता के नाम पर राजनीति ज्यादा और काम कम हुआ है हम देश से गरीबी मिटाने, बेरोजगारी समाप्त करने की बातें तो करते रहे हैं लेकिन हमने किया कुछ नहीं है। आर्थिक रूप से पिछड़े और दबे कुचले लोगों को कभी आरक्षण तो कभी सब्सिडी और मुफ्त बिजली पानी जैसी बातें सिर्फ हमारे राजनीतिक व चुनावी औजार ही रहे हैं। सबका साथ सबका विश्वास व सबका विकास हमारे नेताओं के लोकप्रिय नारे भर हैं। जिस देश के अन्नदाता की आय दोगुना करने की बात की जाती है वह आर्थिक बदहाली में आत्महत्या कर रहे हैं। जय जवान जय किसान वाला यह नया भारत है। जिसके नेताओं के लिए आजादी के 75 साल बाद भी जाति—धर्म मंदिर—मस्जिद से बड़े कोई राजनीतिक मुद्दे नहीं हैं। अमृत की आस में देश के लोगों ने कितना विषपान किया है? गरीब अमीरों के बीच बढ़ती गहरी खाई और बढ़ते सामाजिक असंतुलन के लिए कौन जिम्मेवार है इस पर बहस की बजाय अगर यह सोचा जाए कि इसे कैसे दूर किया जा सकता है तो शायद ज्यादा बेहतर होगा। क्योंकि आजादी सबका अधिकार है।