क्या कानून रोक पायेगा अभिभावकों की उपेक्षा?

0
345
  • वृद्धाश्रम भेजने वाले बच्चों को फोटो के साथ सूचना अखबारों में देने का सुझाव

देहरादून। आजाद खयालों की नई पीढ़ी जिस तरह से अपने माता—पिता की उपेक्षा कर रही है और उन्हें वृद्धाश्रमों में भेज कर अपने उत्तरदायित्वों से पल्ला झाड़ रही है वह एक चिंतनीय स्थिति है। पारिवारिक आदालतों के पास भी इस समस्या का कोई कानूनी समाधान नहीं है। ऐसी स्थिति में बेबस अभिभावकों के पास भी अपने हालात पर आंसू बहाने के अलावा कोई चारा नहीं होता है। देश में अब ऐसी कर्तव्य विमुख औलादों को सबक सिखाने के लिए कानून बनाने पर विमर्श शुरू कर दिया गया है।
पाश्चात्य देशों की तरह अब हमारे देश में भी घर के बड़े बुजुर्गों को किसी बेकार और रद्दी सामान की तरह उपेक्षित किए जाने और उन्हें वृद्धाश्रमों में छोड़ने की जो संस्कृति पनप रही है यह मुद्दा अब संसद की चर्चाओं तक जा पहुंचा है। दक्षिण भारत के एक जनप्रतिनिधि राजेंद्र अग्रवाल ने चर्चा करते हुए कहा कि यह अत्यंत ही चिंतनीय और सामाजिक मुद्दा है तथा इस पर अंकुश लगाये जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि परिवार न्यायालय में किसके हिस्से क्या आएगा कौन किसे कितना खाना—खर्च देगा, बस यही सब सुना जाता है। जो माता—पिता अपनी संतान के लिए पूरा जीवन मरते खपते हैं उनके दर्द और दुख पर किसी की नजर नहीं होती है और अंतिम दौर में कोई उनसे बात करने वाला एक नहीं होता है। उन्होंने कानून मंत्री से अनुरोध किया कि वह इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने के लिए कानून लायें तो अच्छा होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि जो बेटा अपने माता या पिता को वृद्धाश्रम छोड़ने जाता है उससे पहले वह स्थानीय अखबारों में अपने फोटो और पते के साथ यह सूचना प्रकाशित कराएगा। उनका कहना है कि ऐसे कर्तव्य विमुख संतानों के बारे में समाज को पता लगना जरूरी है जिससे उनका असली चेहरा लोगों के सामने आ सके।
एक सवाल यह भी है कि क्या समाज और परिवारों तथा रिश्तों की अहमियत न समझने वाली संस्कारहीन संतानों को इस तरह के कानून से कोई जलालत महसूस हो सकेगी? और वह सामाजिक बदनामी से डर कर मा व पिता के साथ दुर्व्यवहार करने अथवा उन्हें वृद्धाश्रम भेजने से डरेंगे। दरअसल यह समाज और परिवार जिन मानवीय मूल्यों और संस्कारों से चलता है वह संस्कार और मानवीय मूल्य ही कहीं भौतिकवाद में पीछे छूट गए हैं। लालच और निजी हितों के हावी होने के कारण ही रिश्ते और परिवार दरक रहे हैं। कई बार माता—पिता भी यह गलती कर बैठते हैं कि वह अपने जीते जी यह सोचकर कि जो है वह सब इन बच्चों का ही तो है उन्हें दे देते हैं। उन्हें यह डर तो होता है कि कहीं इस संपत्ति के लिए मेरे बाद लड़ाई झगड़ा न हो लेकिन वह यह नहीं सोच पाते कि जब वह खाली हाथ होंगे तो उनकी क्या दुर्दशा हो सकती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here