केंद्र सरकार द्वारा जिस वक्फ संशोधन बिल 2025 को एक लंबी संवैधानिक प्रक्रिया के बाद कानून का जामा पहनाया गया उस बिल की संवैधानिक वैधता पर अब सुप्रीम कोर्ट में सरकार फंसती दिख रही है। कोर्ट में दायर 120 से अधिक याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान इस कानून को चुनौती देने वालों के अधिवक्ताओं द्वारा उठाए गए सवालों का संतोषजनक जवाब न दे पाने में असमर्थ रहे सॉलीसीटर तुषार मेहता ने कोर्ट से इसके लिए अब एक सप्ताह का समय मांगा है जो मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की तीन सदस्यीय पीठ द्वारा दे तो दिया गया है लेकिन इसके साथ ही इस बिल में किए गए उन तमाम संशोधनों पर अदालत का फैसला आने तक उनके क्रियान्वयन पर रोक लगा दी गई जिन्हें लेकर इस बिल की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाये जा रहे थे। इस बिल में जिस वक्फ वाई यूजर को किसी भी तरह का बदलाव न करने तथा केंद्रीय वक्फ परिषद और वक्फ बोर्डो में कोई नई नियुक्ति करने पर रोक लगा दी गई है। सवाल यह है कि जिस बिल पर चार दिन तक संसद में लंबी बहस चली जिसमें जेपीसी ने तमाम संशोधन किया तथा अल्पसंख्यक मंत्री किरन रिजिजू जिन्होंने संसद में 95 लाख सुझाव आवेदनों को पढ़ने तथा तमाम विशेषज्ञों की राय के बाद इस बिल का मसौदा तैयार करने की बात कही थी उस बिल पर सालिसीटर चंद सवालों का भी संतोषजनक जवाब क्यों नहीं दे सके? वक्फ परिषद और बोर्ड में गैर मुसलमानों की नियुक्ति के मसले पर जब कोर्ट ने पूछा कि क्या वह हिंदुओं के बोर्ड और अन्य धर्म के बोर्डो में मुसलमानों को प्रतिनिधित्व देने को तैयार है या देंगे तो उनके पास इसका कोई जवाब क्यों नहीं था? खास बात यह है कि इसे लेकर जो सबसे गंभीर सवाल उठ रहा है क्या सरकार बहुमत के दम पर असंवैधानिक कानून बनाने पर आमादा है? सबसे अधिक चिंता जनक है। यह बात इसलिए कहीं जा रही है कि सरकार द्वारा लाये गए इलेक्टोरल बांड और आईटी कानून संशोधन बिल इससे पूर्व असंवैधानिक करार दिए जा चुके हैं। अगर सरकार द्वारा बार—बार संविधान की मूल भावनाओं के विरुद्ध कानून लाये जा रहे हैं इसके पीछे सरकार की मंशा क्या है? यह सवाल स्वाभाविक ही खड़े होते हैं कि विपक्ष इसे संविधान बदलने की कोशिश और संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता समाप्त करने का प्रयास बता रहा है तो क्या बेवजह है। इस बिल को लेकर सुप्रीम कोर्ट को हिदायत देने और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को लेकर तकरार क्यों हो रही है? जबकि जस्टिस संजीव खन्ना साहब कह रहे हैं कि उनकी मश्ंाा इस बिल पर रोक लगाने की नहीं है लेकिन अगर इसमें कुछ ऐसा है जो किसी के संवैधानिक अधिकारों को प्रभावित करता है तो न्यायपालिका अपना काम करेगी। सत्ता में बैठे लोगों द्वारा अपनी किसी भी गलत बात को सही साबित करने की अगर जिद ठानी जाती है तो उसे क्या न्यायपालिका को सही मान लेना चाहिए। इसके विरोध में दायर याचिकाओं का काउंटर करने के लिए कई राज्य सरकारों द्वारा समर्थन याचिकाओं का दायर किया जाना हास्यास्पद है। दो दिन की सुनवाई में यह स्पष्ट हो चुका है कि भले ही न्यायपालिका द्वारा संवैधानिक ठहरा कर रद्द न किया जाए लेकिन सरकार को उन बिंदुओं पर संशोधन करना ही पड़ेगा जिन पर संवैधानिक आपत्तियां हैं। अगर ऐसा होता है तब इस बिल को लाना न लाना दोनों ही बराबर होगा। सप्ताह भर बाद सरकार अपना क्या पक्ष रखती है और कोर्ट क्या आदेश देती है यह तो समय ही बताएगा। फिलहाल अंतरिम रूप से अंतिम राहत तो मिल चुकी है।