मानसूनी आपदा का कहर यूं तो हर साल पूरे देश को झेलना पड़ता है। अभी 2 दिन पूर्व केरल के वायनाड में 150 लोगों की मौत हो गई और तमाम लोगों के पूरे जीवन की कमाई घर, मकान, दुकान सब कुछ इस आपदा ने पलक झपकते ही छीन लिया। बीते 24 घंटों में उत्तराखंड और हिमाचल में इस आसमानी आफत से भारी जान माल का नुकसान हुआ है। जहां उत्तराखंड में केदारनाथ और घनसाली में बादल फटने से भारी तबाही हुई है वहीं दर्जन भर से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। अभी 4—5 दिन पहले टिहरी में बादल फटने और भूस्खलन के कारण दो गांव तबाह हो गए थे और सैकड़ो लोग बेघर हो गए थे जो अभी भी राहत शिविरों में जीवन यापन पर विवश है। आमतौर पर जब भी इस तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ता है तब शासन—प्रशासन में बैठे लोगों का तर्क होता है कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का कोई बस नहीं होता है। उनकी तरफ से हर संभव बचाओ और राहत के प्रयास किए जाते हैं। यही नहीं कुछ असंवेदनशील अधिकारी और नेताओं द्वारा तो यहां तक कह दिया जाता है कि जब लोगों को मना किया जाता है की नदी, नालों, खालो से दूर रहे तो क्यों वह उनके पास जाते हैं या क्यों तेज बहाव में सड़क पार करने की कोशिश करते हैं बरसात से अगर घर गिर जाता है तो कहा जाता है कि घर गिरने का कोई और भी कारण हो सकता है। लेकिन इस तरह की आपदाओं में जिनके परिजन जान गवंा देते हैं या जिनकी संपत्तियों को भारी नुकसान होता है उसका दर्द वही समझ सकते हैं। किसी मानसून काल से पूर्व ऐसी कोई व्यवस्था इन प्रभावितों के लिए नहीं की जाती है। जहां उन्हें आसानी से रहने खाने पीने की व्यवस्था हो सके। बात जब गांव के उजड़ने और उनके विस्थापन की आती है तो उन्हें सालों साल तिरपाल में अपने बच्चों के साथ समय गुजारने पर मजबूर होना पड़ता है। सरकार द्वारा हर एक मानसून काल में कहा जाता है कि आपदा प्रबंधन को दी जाने वाली मदद में बढ़ोतरी की जाएगी लेकिन सवाल यह है कि अब तक क्या किया गया है अगर किसी परिवार का घर उनसे छिन जाता है तो क्या वह उस सरकारी सहायता जो 40—50 हजार की दी जाती है उससे उनका घर बनाया जा सकता है। आपदा प्रभावितों को राहत शिविरों में लाने और उन्हें दो वक्त का खाना मुहिया कर देने के बाद उन्हें मदद के नाम पर क्या दिया जाता है और उसमें वह कैसे खुद और अपने परिवार को जिंदा रख पाते हैं इस पर कभी गौर नहीं किया जाता है। केंद्र सरकार द्वारा बारिश अतिवृष्टि और बाढ़ जैसी समस्या से निपटने के लिए नदियों को जोड़ने से लेकर जल प्रबंधन और जल निकासी की व्यवस्था पर दशकों से बात तो होती है लेकिन इसका नतीजा आज तक ढाक के तीन पात ही है। हादसों में लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि इस आपदा की भेंट चढ़ जाती है। जो सड़के और पुल टूट जाते हैं उन्हें बनने में कई कई साल लग जाते हैं। अन्य बड़ी उन परियोजनाओं की तो बात ही क्या करनी है जो इस मानसूनी आपदा का स्थाई समाधान बन सकती है जब तक मानसून काल रहता है तब तक मानसूनी आपदा की बात भी होती है और उसके निदान पर चर्चा जारी रहती है, मानसून काल समाप्त तो समस्या भी समाप्त मान लिया जाता है जैसे जंगलों के जलने की समस्या पर मानसून काल शुरू होते ही समस्या समाप्त हो जाती है वैसे ही मानसून की समाप्ति के बाद इस पर कोई बात नहीं की जाती है।