मंडल—कमंडल आखिर कब तक

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आजादी के 75 साल बाद भी देश की राजनीति जिस तरह से मंडल—कमंडल की राजनीति के कुचक्र में फंसी है उससे उबरने की संभावनाएं सौ—सौ कोस तक नजर नहीं आ रही है। धर्म और जाति की राजनीति का जो घेरा दिनोंदिन और मजबूत होता जा रहा है उसे अब न विपक्षी एकता के प्रयास तोड़ने में सक्षम दिख रहे हैं न धर्मनिरपेक्ष और सर्व धर्म समभाव की वह भावना भेदने में सफल होती दिख रही है जिसके दम पर कांग्रेस ने 5 दशक से भी अधिक समय तक राज किया। न बसपा—सपा और तृणमूल व जनता दल यूनाइटेड जैसे दल जिनका यूपी और बिहार में राजनीतिक दबदबा रहा है। 2024 के चुनाव से पूर्व जो जातीय गणना यानी पिछड़ा वर्ग के राजनीतिक समीकरण का शगुफा अब हिंदुत्व का कुछ बिगाड़ पाएगा इसकी संभावनाएं समाप्त हो चुकी है। 1990 में मंडल से जो राजनीति को जो मिल सकता था वह मिल चुका है। मंडल वादियों को कमंडल से हिंदुत्ववादी जवाब दे चुके हैं। तब से लेकर अब तक हिंदुत्व की अवधारणा इतनी मजबूत हो चुकी है कि उसने उन तमाम जातियों को जो हिंदुओं में शुमार की जाती है एक छतरी के नीचे लाकर खड़ा कर दिया है यह अलग बात है कि इस पूरी प्रक्रिया ने देश के समाज को वैचारिक स्तर पर तथा भावनात्मक स्तर पर दो भागों में बांट दिया है और सामाजिक तकरार और टकराव की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है। लेकिन विपक्ष के पास भाजपा और संघ को जवाब देने लायक कुछ नहीं है। यही कारण है कि राहुल गांधी जैसे नेता अपनी कटु बयानबाजी के कारण आज मानहानि के मुकदमे झेलने के साथ—साथ कांग्रेस जैसी पार्टियां अपना राजनीतिक वजूद खोती जा रही है विपक्ष के लोग विपक्षी एकता का जो राग अलाप रहे हैं उस साझे की हांडी में इनकी खिचड़ी अव्वल तो पकना ही संभव नहीं दिख रहा है और पक भी गई तो इसे वह 5 साल तक खा और पंचा सकेंगे वह भी संभव नहीं दिख रहा है। जिस तीसरे मोर्चे की कवायद इन दिनों जारी है उसमें सर्वग्राहता का सर्वथा अभाव है किसका नेतृत्व और किसकी कितनी भागीदारी यह दो मुद्दे ऐसे हैं जिन पर आम सहमति संभव नहीं है। किसी को किसी का साथ गवारा नहीं है तो किसी को किसी का नेतृत्व बर्दाश्त नहीं है। तीसरे मोर्चे में अपने उज्जवल भविष्य का सपना देख रहे नेताओं की भागदौड़ और मेल मुलाकातों का दौर लंबे समय से जारी है। वह चाहे ममता बनर्जी हो या फिर अखिलेश यादव अथवा नीतीश कुमार उनके यह प्रयास किस मुकाम तक पहुंच पाते हैं आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की जिस रणनीति पर भाजपा और उसके अनुषंगिक दल आगे बढ़ रहे हैं उसके सामने अब आम जनहित से जुड़े मुद्दे और समस्याओं को पीछे धकेल दिया गया है। अब न कोई महंगाई व गरीबी तथा बेरोजगारी की बात पर चर्चा करने को तैयार है न ही इन मुद्दों को कोई सुनना चाहता है काला धन और पीला धन (भ्रष्टाचार) जैसी बातें भी पुरानी हो चुकी हैं। देश की वर्तमान राजनीतिक दिशा व दशा भले ही किसी दल या नेता के लिए मुफीद रहे लेकिन देश और देश के समाज हित में कतई नहीं है।

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