उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस जिस तरह अंतहीन कलह की शिकार है, उस तरह की स्थिति में वह कुछ अच्छा कर सकती है या सोच सकती है यह संभव नहीं है। 2022 के विधानसभा चुनाव में उसके पास एक अनुकूल मौका था जब वह आसानी से सत्ता में आ सकती थी लेकिन प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने अपनी गलतियों के कारण उसे गवंा दिया है। इन नेताओं ने 2017 की चुनावी हार और उससे पूर्व 2016 में हुए बड़े कांग्रेसी विभाजन से अगर थोड़ा भी सबक लिया होता तो आज उसकी यह दुर्दशा नहीं होती। पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता कहे जाने वाले हरीश रावत को चुनाव से सालों पूर्व ही स्वयं को सीएम का चेहरा घोषित कराने की कोशिशों से क्या हासिल हो सका? क्या उनकी इन कोशिशों ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया? रामनगर से अपना टिकट करा कर तथा रंजीत सिंह का टिकट कटवा कर उन्हें या कांग्रेस को उन्होंने कितना फायदा पहुंचाया? रणजीत सिंह तो चुनाव हार ही गए वह खुद भी क्या चुनाव जीत सके? आज हालात यह है कि उनकी पार्टी के लोग उन पर टिकट बेचने का आरोप लगा रहे हैं और इस हार के लिए उन्हें ही जिम्मेवार ठहराया जा रहा है। लगातार दो विधानसभा चुनाव में जिस तरह की हार कांग्रेस की हुई है वह दोनों ही चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़े गए। हास्यापद बात यह है कि वह अभी भी एक और चुनाव लड़ने का इरादा जता रहे हैं। चुनावी हार के बाद भी पार्टी के अंदर की उठापटक इस कदर चरम पर है कि जिन नए नेताओं को प्रदेश अध्यक्ष और नेता विपक्ष की जिम्मेवारी दी गई है क्या वह ऐसे माहौल में कांग्रेस को एक सूत्र में बांधे रख पाएंगे? चुनाव जीतना या फिर कुछ कर गुजरना तो बहुत दूर की बात है। सीएम धामी के चंपावत से उप चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद भले ही यह नेता पूरे दमखम के साथ चुनाव में जाने की बात कर रहे हो लेकिन बीते दो—तीन दिनों से जिस तरह की खबरें आ रही है वह यह बताने के लिए काफी है कि कांग्रेसी खुद ही अपना और कांग्रेस पार्टी का बंटाधार करने में जुटे हुए हैं। दो दिन पूर्व यह खबर सोशल मीडिया पर सुर्खियों में थी कि कोई कांग्रेस का बड़ा नेता भाजपा में जाने वाला है इस खबर को भाजपा ने नहीं कांग्रेसियों ने ही हवा दी बीते कल सोशल मीडिया पर प्रीतम सिंह के इस्तीफा देने की खबर आ गई। जिस पर अब प्रीतम सिंह मुकदमा करने की बात कह रहे हैं। इससे पूर्व स्वयं को नेता विपक्ष न बनाए जाने व अपनी उपेक्षा का आरोप लगाकर हरीश धामी कांग्रेस छोड़ने की धमकी देते दिख रहे थे। ऐसे में यह कांग्रेसी सीएम के खिलाफ या भाजपा के खिलाफ क्या चुनाव लड़ेंगे सहज समझा जा सकता है। करन माहरा अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे हैं लेकिन क्या वह अनुशासनहीनता करने वालों के खिलाफ कुछ कर भी सकते हैं? यह संभव नहीं है वह खुद प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बने रहें यही काफी है। इन हालातों में अगर कांग्रेसी अच्छे दिनों के सपने देख रहे है तो वह दिन में सपने देखने जैसा ही है क्योंकि कांग्रेस का अंर्तकलह ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा है।