बिहार की राजधानी पटना में आज विपक्षी एकता का महामंच सज रहा है। देश का विपक्ष भाजपा और नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए लंबे समय से एकता के प्रयासों में जुटा हुआ है। लेकिन अब तक के प्रयासों में उन्हें आंशिक सफलता ही मिल सकी है। दरअसल इस एकता के प्रयासों का उद्देश्य भले ही एक रहा हो, लेकिन इसका हिस्सा बनने वाले सभी दलों का उद्देश्य अलग—अलग है। किसी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की हसरत है तो किसी को अपनी विलुप्त होती राजनीतिक जमीन की तलाश है। विपक्षी दलों की एकता के इन प्रयासों में अब तक सिर्फ एक बात पर सहमति बन सकी है कि चुनाव परिणाम से पूर्व पीएम का चेहरा किसी को नहीं बनाया जाएगा। यह फैसला भी इसलिए लिया गया है क्योंकि इसे लेकर कई नेताओं की दावेदारी सामने आ रही थी। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि यह विपक्षी एकता एक तरह से बिना दूल्हे के बारात होगी। किसी भी चुनाव में चेहरे की क्या महत्वता होती है इसे पिछले 2 लोकसभा चुनावों से समझा जा सकता है। भाजपा ने यह दोनों ही चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर लड़े और जीते हैं। भाजपा की एकता और प्रचार ने अब तक बीते 9 सालों में मोदी को उन ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है कि उनके नाम का इस्तेमाल अब भाजपा ट्टमोदी है तो मुमकिन है, के नारे के साथ कर रही है। सिर्फ संसदीय चुनाव ही नहीं बल्कि राज्यों के विधानसभा चुनाव भी भाजपा ने मोदी के चेहरे पर लड़े और जीत रही है। उत्तराखंड जैसे तमाम ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा ने राज्य सरकार के तमाम नेगेटिव फैक्ट्रर के बावजूद भी रिकॉर्ड जीत के साथ सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखी है। गुजरात तो लगातार पांच बार जीत का इतिहास रच चुका है। भाजपा को मोदी पर इतना भरोसा है कि वह इस विपक्षी एकता को एक शगुफा भर बता रही है और इस विपक्षी एकता को लेकर उसके माथे पर एक शिकन तक दिखाई नहीं दे रही है। भाजपा को इस बात का पूरा भरोसा है कि 2024 के चुनाव में उसे मोदी के नेतृत्व में जीत की हैट्रिक लगाने से कोई नहीं रोक सकता है। हालांकि यह भाजपा का अति उत्साह भी कहा जा रहा है। लेकिन इस विपक्षी एकता की राह में अड़चनों की कोई कमी नहीं है। विपक्षी एकता के प्रयासों में जुटे नेता अभी तक पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और आप के संयोजक व दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं को अपने साथ लाने में सफल नहीं हो सके हैं। कहने का आशय है कि इस विपक्षी एकता में कौन इसका हिस्सा होगा और कौन नहीं होगा अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं हो सका है। कांग्रेस भले ही इन विपक्षी दलों में सर्वाधिक प्रभाव वाली पार्टी है लेकिन कांग्रेस को साथ लेने या उसके साथ खड़े होने में सपा जैसे तमाम दल भी परहेज कर रहे हैं जिनका अपना एक राज्य से बाहर कोई वजूद नहीं है जबकि सभी दलों को इस बात का भी एहसास है कि बिना कांग्रेस के इस विपक्षी एकता का कोई भी अर्थ नहीं रह जाएगा। इस एकता में सबसे बड़ी चुनौती का काम है सभी दलों की भागीदारी सुनिश्चित करना कि किस दल को किस राज्य में कितनी कितनी सीटों पर चुनाव लड़ने का अधिकार दिया जाए। भले ही चुनाव परिणाम के बाद यह तय करना आसान होगा कि सत्ता में किसकी कितनी भागीदारी हो लेकिन सीटों का बंटवारा सबसे मुश्किल काम है। देश में आज इमरजेंसी जैसे हालात नहीं है जब समूचे विपक्ष ने एकजुट होकर स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में सफलता हासिल की थी। देश में गठबंधन की राजनीति का दौर जब से शुरू हुआ है जो अब तक के अनुभवों से अच्छे नहीं रहे हैं। बहुदलीय सरकारों का क्या भविष्य है इसे देश की आम जनता भी जानती है भले ही भाजपा और कांग्रेस ने गठबंधन की बड़े लंबे समय तक सरकारे चलाई हो लेकिन उनके भविष्य पर कितना भरोसा किया जा सकता है यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। आज देश का आम आदमी महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी व बेरोजगारी की भयंकर मार झेल रहा है और भाजपा की केंद्र सरकार मनमाने तरीके से काम कर रही है लेकिन विपक्षी एकता की सफलता इसके बाद भी संदेह के दायरे में है। चुनाव के बाद और चुनाव से पूर्व गठबंधन भी अलग—अलग बातें हैं। अब देखना यह है कि विपक्षी एकता के यह प्रयास कितने परवान चढ़ पाते हैं।