कृषि भूमि की चिंता या चुनावी मुद्दा

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उत्तराखंड राज्य का 67 फीसदी भूभाग जंगल, पहाड़, नदियों और खालो से आच्छादित है ऐसी स्थिति में कृषि, आवास और उघोगों तथा परिवहन के लिए सिर्फ 33 प्रतिशत भूभाग ही बचता है जो किसी भी राज्य के समुचित विकास के लिए नाकाफी ही कहा जा सकता है। लोगों को अपनी जरूरतों के लिए जंगलों का अतिक्रमण करना पड़ता है। राज्य गठन के समय राज्य के पास 7.70 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि थी जो अब 6.48 लाख हेक्टेयर रह गई है जिसमें से 3.50 लाख हेक्टेयर जमीन राज्य के 9 पर्वतीय जनपदों में है बाकी चार मैदानी जनपदों में। खास बात यह है कि पर्वतीय जिलों में जो कृषि भूमि है वह अत्यधिक छोटे क्षेत्र वाली हैं। राज्य बने दो दशक का समय हो चुका है लेकिन राज्य में बनी अब तक की किसी भी सरकार द्वारा भू प्रबंधन की दिशा में न तो कभी ठीक से सोचा गया और न इस पर काम किया गया। राज्य में चकबंदी की चर्चा तो लंबे समय से हो ही रही है लेकिन चकबंदी के सार्थक प्रयास अब तक नहीं किए गए। राज्य बनने के बाद राज्य में जमीनों को बिजनेसमैन लोगों के लिए बड़े मुनाफे का सौदा बना लिया गया। अब जब लोगों को यह लगने लगा है कि अगर इसी गति से जमीने उनके हाथ से खिसकती रही तो आने वाले दिनों में वह भूमिहीन हो जाएंगे तथा उनके पास जीवन यापन के लिए नौकरी चाकरी के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा। यही कारण है कि इन दिनों सुबे में भूमि कानून की मांग जोर पकड़ती जा रही है। लोग सरकार द्वारा यूपी के समय के वाले कानून में किए गए संशोधन को गलत बता रहे हैं जिसमें खरीद—फरोख्त के नियमों को लचीला व सरल बना दिया गया है बदले गए प्रावधानों में उघोग के लिए बाहरी लोग जितनी चाहे जमीन खरीद सकते हैं तथा कृषि श्रेणी की जमीन का भू उपयोग बिना किसी प्रक्रिया के बदला माना गया है। अब सुबे में कुछ लोग या यूं कहो कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल और उनके कार्यकर्ताओं द्वारा राज्य में हिमाचल की तरह सख्त कानून बनाने की मांग की जा रही है। मुद्दा गर्म होता देख अब कांग्रेस जैसी बड़े दल भी इसके समर्थन में खड़े हो गए हैं। खास बात यह है कि यह नये भू कानून की मांग चुनावी दौर में जोर पकड़ती दिख रही है। अब यह सवाल भी स्वाभाविक है कि कड़े भू कानूनों की पैरवी में जुटे लोगों को राजनीतिक मुद्दा चाहिए या फिर वास्तव में यह लोग सूबे की सिकुड़ती कृषि भूमि क्षेत्र को लेकर वास्तव में चिंतित है। क्योंकि हमने मलिन बस्तियों के नियमितीकरण जैसे कई मुद्दे पहले भी देखे हैं जो चुनाव के समय जोर शोर से उठाए जाते हैं और चुनाव खत्म होते ही फिर परिदृश्य से गायब हो जाते हैं। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह एक चिंतनीय मुद्दा है। आने वाली सरकारों को भू कानूनों में संतुलित परिवर्तन करने पर ध्यान देना चाहिए जिससे कृषि भूमि को खुर्द बुर्द होने से बचा जा सके और विकास कार्य भी बाधित न हो।

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