कर्नाटक नतीजे क्या राष्ट्रीय राजनीति की नई दिशा बनेंगे?

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ऋतुपर्ण दवे

rituparndave@gmail.com

कर्नाटक विधान चुनाव में कांग्रेस की बम्पर और ऐतिहासिक जीत ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि देश में लोकतंत्र न केवल मजबूत है बल्कि जनता के मूल मुद्दों से इतर ध्रुवीकरण की कोशिशों नाकाम होंगी। कांग्रेस के बहुमत की उम्मीद तो थी, लेकिन नतीजा ऐसा चौंकाने वाला आएगा ये हैरान करता है। शायद भाजपा और खुद प्रधानमंत्री मोदी भी ऐसे नतीजों से असहज हों। हर वक्त चुनावी मोड में रहने वाली भाजपा ने मोदी मैजिक को भंजाने के लिए सारे दांव-पेंच चले। सारी चुनावी बिसातें को बिछाकर एक-एक कार्यकर्ताओं को साधने की जुगत में महारत के बावजूद ऐसे नतीजों से ना उम्मीद होगी बल्कि अब आगे सतर्क भी रहेगी क्योंकि 2024 के आम चुनाव दूर नहीं हैं। निश्चित रूप से कर्नाटक का चुनाव कांग्रेस के लिए संजीवनी तो भाजपा को दूसरी बार झटका है। अपने मैजिक के आगे दूसरों के मैजिक को नकारने की गलती पर भी मंथन मजबरी होगी। इसके पहले हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा को उम्मीद से इतर नतीजों ने हैरान किया था। वहां भी प्रधानमंत्री मोदी को प्रमुख चुनावी चेहरा बनाकर चुनावी वैतरणी में भाजपा ने गोता लगाया था। कमोवेश उससे बड़ी रणनीति बनाकर प्रधानमंत्री ने कर्नाटक में बड़े-बड़े रोड शो किए और जनमानस को लुभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जबकि हिमाचल में कांग्रेस ने राहुल की यात्रा के बीच प्रियंका को सामने रख चुनाव लड़ा था। वहीं कर्नाटक में राहुल, प्रियंका, खरगे सहित पूरी पार्टी एकजुटता के साथ मैदान में डटी रही और भाजपा की हर बिसातों को मात दी। ऐसा लगता है कि देश की जनता को अब लोक लुभावन वायदों, जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण से आगे की चिन्ता होने लगी है जो ठीक भी है। कर्नाटक में जिस तरह से धर्म और जाति के आधार पर मतदाताओं की संख्या और आंकड़ों का गणित लगाया गया इससे इतर नतीजों ने बता दिया कि वहां का मतदाता अलग सोच रखता है। कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्री बदलने के फॉर्मूले से भी अलग संदेश गया जिसको शायद भाजपा नहीं समझ पाई? जब कर्नाटक की जनता वहां के मुख्य मुद्दे मंहगाई, बेरोजगारी के साथ-साथ गैस सिलेण्डर जैसे आम जरूरतों पर नफा-नुकसान को चिंतित थी तब भाजपा बजरंग बली को भांजने और लिंगायत मतदाताओं को लुभाने सक्रिय थी। जबकि कांग्रेस स्थानीय मुद्दों, मंहगाई और भ्रष्टाचार पर केन्द्रित रही। वहां चुनाव में बजरंग बली और टीपू सुल्तान की गूंज खूब सुनाई दी। लेकिन जिस खामोशी से कर्नाटक के मतदाताओं ने नतीजे दिए उससे यही लगता है कि नेताओं से ज्यादा परिपक्व भारत का मतदाता है। सच भी है ये पब्लिक है, सब जानती है। कर्नाटक में जिस तरह से भाजपा के तमाम तुरुप पत्तों समान ढ़ह गए, कई मंत्री और दिग्गज तो हारे ही लेकिन जिन मुद्दों को चुनावी एजेण्डा बनाया गया उसे भी जनता ने नकार दिया। साल की आखिरी तिमाही में फिर विधानसभा चुनावों की सरगर्मियां बढ़ेंगी जब मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना राज्यों में चुनाव प्रक्रिया होगी। संभव है इसी समय केंद्र शाषित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव हो जाएं। कांग्रेस के पास केवल राजस्थान और छ्त्तीसगढ़ है। मिजोरम की सत्ता पर भाजपा के सहयोग से क्षेत्रीय दल काबिज है। तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस सत्तासीन है। मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव हैं जिन्होंने कर्नाटक में जनता दल (सेकुलर) का समर्थन किया। ऐसे में बीआरएस अब तक भाजपा को चुनौती मान रही थी, अब कांग्रेस के आत्मविश्वास से चिंतित होगी। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद से जम्मू-कश्मीर में चुनाव नहीं हुए। वहां मतदाता सूची संक्षिप्त पुनरीक्षण के अंतिम चरण में है, प्रकाशन 27 मई को होगा। वहां 19 जून 2018 से सरकार बेदखल है और केन्द्र के अधीन है। बिगड़ती सुरक्षा स्थिति के चलते महबूबा मुफ्ती की सरकार से भाजपा ने समर्थन खींचा था। उधर हिन्दी पट्टी चुनावी क्षेत्र अलग कहानी कह रहे हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा संगठन में दिख रहा अंर्तकलह और दलबदल कर आए विधायकों को लेकर हुए उलट फेर और दिग्गजों के चौंकाने वाले बयान सामने हैं। जबकि छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की छवि बेहद अलग व साधारण और लोकहितैषी है। यहां कांग्रेस में कोई बड़ी गुटबाजी दिखती नहीं। गाय, गोबर, आत्मानन्द स्कूल और नए जिलों के गठन से मिली लोकप्रियता विरोधियों खातिर बड़ी चुनौती होगी। हां राजस्थान में कांग्रेस की आपसी खींचतान बड़ा नुकसान का सबब जरूर बन सकती है। न तो पायलट रुकने वाले और न ही अशोक गहलोत थमते दिखते। ऐसे में भाजपा कौन सा दांव चलेगी यह देखने लायक होगा। वसुंधरा राजे सिंधिया को लेकर भी अक्सर कई तरह के कयास लगाए जाते हैं। वैसे भी तीन दशक से हर बार सरकार बदलने का चलन है। इतना जरूर है कि जिस मेहनत, एकाग्रता व सबको साथ लेकर कांग्रेस ने कर्नाटक के जरिए राष्ट्रीय राजनीति में वापसी की है उससे उसका आत्मविश्वास इतना जरूर बढ़ गया है कि 2024 के आम चुनाव के लिए नई ताकत व जोश से सामने होगी। यह भी नहीं भूलना होगा कि पंजाब के जालंधर लोकसभा उप-चुनाव में आम आदमी पार्टी ने करीब 56 हजार वोटों से बड़ी जीत दर्ज कर कांग्रेस को पटखनी दी। इससे पहले संगरूर सीट मुख्यमंत्री भगवंत मान के इस्तीफे से खाली हुई थी जिसे अकाली दल के सिमरनजीत सिंह मान ने जीती थी। ऐसे समीकरण भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए आम चुनाव 2024 में नयी सियासत और संभावनाओं हेतु चुनौती बनेंगे। ऐसा लगता है कि आम लोगों के खास मुद्दों को लेकर मतदाताओं में सजगता ज्यादा है। अगले आम चुनाव में तमाम क्षेत्रीय दलों के नेताओं के राष्ट्रीय राजनीति में शर्ट की बांह समेटने और ताल ठोंकने पर कुछ तो विराम लगेगा। उससे भी बड़ा यह कि कांग्रेस विहीन का नारा नहीं होगा। पप्पू की छवि से बाहर निकल राहुल गांधी का गंभीर व वजनदार चेहरा भी विरोधियों के लिए चुनौती होगा। बहरहाल कर्नाटक के नतीजों से भाजपा सहित तेजी से उभर रहे क्षेत्रीय दलों को आत्मचिंतन जरूर करना पड़ेगा। उससे भी बड़ा सवाल यही कि क्या कर्नाटक के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव की सुनामी तो नहीं साबित होंगे? (लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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