जोड़—तोड़ की राजनीति

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पुरानी कहावत है कि राजनीति और प्यार में सब कुछ जायज होता है। भले ही सभी राजनीतिक दल और उनके नेता लाखों दावे करें कि उनकी पार्टी अपने संविधान व राजनीतिक मर्यादाओ के अनुसार काम करती है लेकिन यह सच नहीं है। हर पार्टी अपने संगठन की मजबूतीं और चुनाव जीतने के लिए साम—दाम—दंड—भेद की सभी नीतियां और हथकंडे अपनाती है। इन दिनों जिन राज्यों में विधानसभा चुनावों की तैयारियां चल रही है उन सभी राज्यों में भारी उठापटक का दौर चल रहा है। उत्तराखंड की राजनीति भी इससे अछूती नहीं है। चुनाव के पूर्व दल बदल के खेल के जरिए भाजपा और कांग्रेस न सिर्फ एक दूसरे को कमजोर करने अपितु स्वयं को मजबूत साबित कर मानसिक दबाव का खेल खेल रही है। पिछले चुनाव से पूर्व कांग्रेस में विभाजन कर उसे भारी नुकसान पहुंचाने में सफल रही भाजपा और उसके नेता 2022 के चुनाव से पूर्व बची कुची कांग्रेस को भी तहस—नहस करने के प्रयासों में लगातार जुटे हुए हैं। उत्तरोत्तर कामयाबी की ओर अग्रसर भाजपा हर उस राज्य में चुनाव से पूर्व दल बदल के जरिए अपने प्रतिद्वंदी दल को कमजोर बनाने की रणनीति अपनाती रही है। पश्चिमी बंगाल चुनाव से पूर्व तमाम टीएमसी नेताओं को भाजपा ने अपने पाले में खींच लिया था यह अलग बात है कि वहां ममता बनर्जी की रणनीति के सामने उन्हें अपने मकसद में सफलता नहीं मिल पाई। चुनाव के बाद भी विधायकों की खरीद—फरोख्त आज की राजनीति की दूसरी अहम रणनीति बन चुकी है। चुनाव परिणामों के बाद अगर किसी दल की पूर्ण बहुमत की सरकार बन भी जाए तब भी उसके पूरे 5 साल चलने को कोई गारंटी नहीं है क्योंकि सत्ता के लिए सेंधमारी कभी भी संभव है, तमाम राज्य इसका उदाहरण है। सच यह है कि यह राजनीति का चीर हरण ही है। बीते कुछ दशकों में जिसके अनेक उदाहरण भारतीय राजनीति में हम देख चुके हैं। उत्तराखंड में चुनाव पूर्व दलबदल किस हद तक हावी है इसका उदाहरण बीते कुछ समय पूर्व भाजपा नेताओं का वह बयान है जिसमें उन्होंने कहा है कि तमाम कांग्रेसी नेता भाजपा में आने को तैयार बैठे हैं। यही नहीं पूर्व सीएम हरीश रावत जिन्होंने दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाने की इच्छा जाहिर की थी से भाजपा में भी खलबली मच गयी थी कि कहीं यशपाल आर्य फिर भाजपा छोड़कर कांग्रेस में तो नहीं जाने की तैयारी में है। जो बाद में सच साबित हुआ। घर चाहे भाजपा का हो या कांग्रेस का दोनों के घर शीशे के ही है। फिर भी दोनों ही दलों के नेता इन दिनों एक दूसरे पर पत्थरों की बरसात करने में जुटे हैं। रही बात आम जनता की वह फिलहाल बड़ी खामोशी के साथ तमाशबीन बनकर दोनों का राजनीतिक तमाशा देख रही है।

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