सुप्रीम कौन?

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जी हां! इन दिनों हमारे माननीय सुप्रीम कौन? की जंग में मोर्चा संभाले हुए हैं। खास बात यह है कि इस जंग में वह किसी को घसीटने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। चाहे वह राष्ट्रपति हो या राज्यपाल या फिर सांसद हो या फिर संविधान। कार्यपालिका हो या न्यायपालिका। देश की राजनीति के 75 साल के इतिहास में जो आज तक नहीं हुआ था वह अब हो रहा है। संसद बड़ी है या सर्वाेच्च न्यायालय, संसद बड़ी है या संविधान? सर्वाेच्चता की इस लड़ाई में हमारे माननीय नेताओं द्वारा ऐसी—ऐसी मिसाले और दलीलें दी जा रही है जो हैरान करने वाली है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ कहना है कि संसद ही सबसे बड़ी है उससे बड़ा कोई नहीं है। कपिल सिब्बल जो वरिष्ठ कांग्रेसी नेता है उनका कहना है कि देश का संविधान ही सबसे बड़ा है उससे बड़ा कोई नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा केरल के राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा किसी पारित विधेयक पर तीन माह में फैसला लेने का आदेश देने वाला सुप्रीम कोर्ट कौन होता है? जिस जज को सरकार नियुक्त करती है वह राष्ट्रपति या राज्यपाल को कैसे आदेश दे सकता है जो लोग देश की संसद और विधानसभा में है उन्हें भी जनता द्वारा ही चुना जाता है जिन्हें जनता चुनती है वह जनता को कैसे आदेशित कर सकते हैं इस तरह तो जनता ही सर्वाेच्च है। अगर नेताओं की सोच यह है कि जनता को यह अधिकार उन्होंने दिया है तो यह एक बड़ी भूल है जनता को यह अधिकार संविधान ने ही दिया है। न्यायपालिका को भी यह अधिकार है कि वह सरकार के फैसलों की समीक्षा कर सके, संविधान ही देता है। संसद में बैठकर सांसद व विधानसभाओं में बैठकर मंत्री और विधायक संविधान से ऊपर नहीं हो सकते हैं जिन्हें राज्यपाल और राष्ट्रपति चुनने का अधिकार अगर है तो वह संविधान द्वारा दिया गया अधिकार ही है। यह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण और खेद जनक है कि राज्यपालों से लेकर संसद में बैठे मंत्री और सांसदों द्वारा अपनी संवैधानिक ताकत और अधिकारों का गलत प्रयोग किया जा रहा है इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि अपने बहुमत या सरकार में होने का नाजायज लाभ लेने के लिए संवैधानिक व्यवस्थाओं को तार—तार किया जा रहा है। सांसद निशिकांत दुबे देश की सर्वाेच्च न्यायालय और चीफ जस्टिस संजीव खन्ना पर देश में गृह युद्ध भड़काने का न सिर्फ आरोप लगा रहे हैं बल्कि उन्हें जिम्मेदार ठहराते हुए न्यायपालिका को मिले संवैधानिक अधिकारों को भी चुनौती दे रहे हैं। उनका कहना है कि जब न्यायपालिका को ही सब कुछ करने का अधिकार है तो संसद और विधानसभाओं की कोई जरूरत नहीं है। क्या इससे बेतुकी बात और कुछ हो सकती है। अपनी इस बेतुकी बयान बाजी के लिए वह संविधान और न्यायपालिका की अवमानना की जद में तो आ ही गए हैं और यह समय ही बताया कि इसकी उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ेगी जहां तक बात देश में गृह युद्ध जैसे हालात पैदा होने की है तो उसके लिए भाजपा के निशिकांत दुबे जैसे ही नेता जिम्मेदार है जिन्हें हिंदू—मुस्लिम और मंदिर—मस्जिदों में अपना और अपनी पार्टी का भविष्य दिखाई देता है। उन्हें यह जरूर समझ लेना चाहिए कि इस देश में जिस दिन कोई भी संविधान से ऊपर हो जाएगा उस दिन देश से लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा।

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