सब गोलमाल है

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क्या चुनावी घोषणा पत्रों में किए जाने वाले वायदों की तरह प्रत्याशियों के नामांकन पत्रों के साथ लगाये जाने वाले शपथ पत्रों और प्रमाण पत्रों की कोई गारंटी नहीं होती है? कि वह सच पर आधारित हो। अगर इसका जवाब हां ही है तो फिर इन औपचारिकताओं की जरूरत ही क्या है। लेकिन अब इस बात पर गौर किया जाए तो यह इतनी बड़ी गड़बड़ी है जिसने समूचे सिस्टम को खराब कर दिया है। नेताओं के द्वारा अपने शपथ पत्रों में अपनी आय से लेकर अपनी शिक्षा और जाति—धर्म के साथ—साथ अपने आपराधिक इतिहास की जो भी जानकारी दी जाती है वह सब गलत ही होती है। अगर यह जानकारियां सही हो तो एक भी कोई अपराधी प्रवृत्ति का व्यक्ति विधानसभा और संसद तक नहीं पहुंच सकता है। आज वर्तमान दौर में अगर 50 फीसदी के आसपास अपराधी किस्म के लोग विधानसभाओं और संसद में बैठे हैं तो यह हमारे सिस्टम के गड़बड़ झाले का ही नतीजा है। सवाल यह भी है कि इन नामांकन पत्रों के जांच के लिए भी निर्वाचन आयोग द्वारा समय दिया जाता है लेकिन जांच करने वाले जांच को लेकर गंभीर नहीं होते हैं। जिसका पूरा—पूरा लाभ जालसाज उम्मीदवारों को मिलता रहा है। इन दिनों उत्तराखंड की राजनीति में एक ऐसा ही मामला ऋषिकेश के मेयर शंभू पासवान का भी है। जिस पर अब सभी की निगाहें हाई कोर्ट के फैसले पर लगी हुई है। मेयर शंभू पासवान के खिलाफ उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी रहे दिनेश चंद्र जिन्हें लोग मास्टर जी के नाम से भी जानते हैं द्वारा मामला दर्ज कराया गया है। जिसमें उनके जाति प्रमाण पत्र को लेकर कई सवाल उठाए गए हैं। शंभू पासवान ने यह चुनाव भाजपा के टिकट पर लड़ा था। चुनाव के दौरान मास्टर जी और उनके समर्थकों द्वारा यह प्रचारित किया गया था कि शंभू पासवान उत्तराखंड के मूल निवासी नहीं है तथा भाजपा द्वारा एक बाहरी प्रत्याशी को पहाड़ की जनता पर थोपा जा रहा है। प्रचार के दौरान मास्टर जी को मिल रहे जन समर्थन से भी लग रहा था कि वह चुनाव आसानी से जीत जाएंगे मगर भाजपा ने अपनी सांगठनिक ताकत में वह सत्ता के सहारे किसी प्रकार चुनाव तो जीत लिया लेकिन मास्टर जी ने हार कर भी हार नहीं मानी और उनके जाति प्रमाण पत्र को फर्जी बता कर हाई कोर्ट जा पहुंचे। शंभू पासवान जो अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र नामांकन पत्र के साथ लगाकर चुनाव जीते हैं वह अनुसूचित जाति के है या नहीं अलग बात है। लेकिन वह पहाड़ के मूल निवासी नहीं है, क्योंकि वह खुद बताते हैं कि वह राज्य गठन से पूर्व टिहरी में आकर बसे थे। सवाल यह है कि फिर उत्तराखंड में उनका जाति प्रमाण पत्र कैसे बन गया। हाईकोर्ट ने अब डीएम दून को इसकी जांच कर आख्यां देने को कहा है। अगर जांच में उनका यह प्रमाण पत्र गलत साबित होता है तो उनकी मेयर की कुर्सी का जाना तय माना जा रहा है। भले ही वह सत्ताधारी भाजपा के प्रतिनिधि क्यों न हो, चाह कर भी सरकार उन्हें नहीं बचा पाएगी। लेकिन उनके दस्तावेजों की जांच पहले ही की गई होती तो इसकी नौबत शायद नहीं आती। कोर्ट के इस फैसले पर शंभू पासवान का राजनीतिक भविष्य तो टिका है ही अन्य तमाम सवाल भी खड़े होंगे जिनका जवाब ढूंढना पड़ेगा।

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