भीड़ के तंत्र को समझना जरूरी

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महाकुंभ और चारधाम यात्रा जैसे महा आयोजनों के संयोजनों पर गर्व करने वाली सरकारों को इस बात पर भी चिंतन—मंथन करने की जरूरत है कि भीड़ और भगदड़ में होने वाले जान माल के नुकसान से कैसे बचा जा सकता है। अभी 2 दिन पूर्व राजधानी दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ के कारण 18—20 लोगों की जान जाने के बाद भी कल राजधानी के कई स्टेशनों पर वैसी ही भीड़ का दबाव देखा गया जैसे हादसे के समय था। यह वास्तव में हैरान करने वाली स्थिति है। हमें यह बताते हुए गर्व अवश्य होता है कि इस बार महाकुंभ स्नान में रिकॉर्ड 50 करोड़ से अधिक लोगों ने गंगा स्नान किया। मां गंगा और महाकुंभ के प्रति सनातनियों की आस्था और आकर्षण की बात अलग है और लोगों की जान माल की सुरक्षा इसका दूसरा पहलू है। महाकुंभ प्रयागराज के आयोजन के दौरान अब तक आग लगने से लेकर भगदड़ तथा भीड़ के दबाव और रेल तथा सड़क दुर्घटनाओं में कितने लोगों की जान जा चुकी है इसकी कोई सही गिनती नहीं की जा सकती है। लेकिन जितने भी जान माल का नुकसान हुआ है वह कम नहीं है। भले ही इस नुकसान को यह कहकर कमतर आंकने का प्रयास किया जाए कि इतने विराट आयोजन में इस तरह की छोटी—मोटी दुर्घटनाएं होना स्वाभाविक है। उत्तराखंड में 2013 में चार धाम यात्रा के दौरान केदारनाथ में आई प्राकृतिक आपदा के समय भारी जनधन की हानि हुई थी। 2015 में मक्का मदीना में हुई भगदड़ में 2400 से अधिक लोगों की जान चली गई थी। देश से लेकर विदेश तक अनेक ऐसी घटनाएं उदाहरण के तौर पर हमारे सामने है जो यह बताती है कि भीड़ का दबाव अगर नहीं रहा होता तो इन हादसों में होने वाले बड़े नुकसान से बचा जा सकता था। धार्मिक आस्था के नाम पर उमड़ने वाले जन सैलाब का कोई भी प्रबंध किया जाना संभव नहीं है। आयोजकों द्वारा अगर इसका प्रचार प्रसार कितना अधिक किया जाए और लोगों से अपील की जाए कि वह अधिक से अधिक संख्या में आए और इस खास अवसर पर पुण्य लाभ कमाये तो फिर इस भीड़ को नियंत्रण करना और भी मुश्किल तथा असंभव हो जाता है। बात अगर वर्तमान महाकुंभ की करें तो 144 साल बाद बने किसी अत्यंत ही दुर्लभ योग और सहयोग के प्रचार की बात करें तो आज हालात यह हो चुके हैं कि हर किसी को बस एक ही धुन है कि त्रिवेणी में स्नान करना है। हालात चाहे कुछ भी हो या परेशानी चाहे जितनी भी हो। निश्चित तौर पर इसे उचित नहीं समझा जा सकता है। भीड़ के तंत्र और उसके स्वभाव को समझा जाना भी जरूरी है किसी भी एक सीमित स्थान पर एक समय में कितने लोग समा सकते हैं इसकी एक सीमा होती है। जब एक ही किसी स्थान पर भीड़ का दबाव इतना अधिक हो जाता है कि आदमी के हाथ पैर हिल तक न सके और ऑक्सीजन की कमी से भीड़ को सांस लेने में भी दिक्कत आने लगे तो लोग बेहोश होकर गिरने लगते हैं। भीड़ के दबाव को कम करने के प्रयास में हर कोई एक दूसरे को धकियाना शुरू कर देता है ऐसी स्थिति में किसी की भी जान सुरक्षित नहीं रहती है। भीड़ और भगदड़ की इस स्थिति में जो भी एक बार जमीन पर गिर गया उसका उठकर खड़ा होना मुश्किल हो जाता है और भीड़ उसके ऊपर से गुजरने लगती है। सच यह है कि इस भीड़ को तभी रोका जा सकता है जब आप स्वयं को इस भीड़ का हिस्सा न बनने दें। इस तरह के धार्मिक आयोजनों में प्रतिदिन के हिसाब से भीड़ की संख्या का तय किया जाना तथा सुनिश्चित किया जाना ही इस तरह के हादसोंं से बचने का एकमात्र कारगर तरीका हो सकता है इसके अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। सरकार और प्रशासन के साथ—साथ आम जनता का भी इसे लेकर जागरूक होना जरूरी है।

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