आजादी के 75 सालों में भले ही हमारे देश ने तमाम क्षेत्रों में विकास के कीर्तिमान स्थापित करने में सफलता हासिल कर ली हो और हम चांद पर पहुंच गए हो लेकिन आजादी के अमृत काल का ढिंढोरा पीटने वाली देश की राजनीति अब तक मंडल और कमंडल से आगे एक कदम भी नहीं बढ़ सकी है। धर्म—जाति, मंदिर—मस्जिद और अगडे़ पिछड़ों की अंकगणित में उलझी देश की राजनीति और नेताओं ने अभी अपनी समूची ताकत इसमें झोंक रखी है। बिहार से आए जातिगत जनगणना के आंकड़ों से यह साफ हो चुका है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर मंडल कमंडल का मुद्दा ही हावी रहने वाला है। देश के इस पहले जातिगत जनगणना के सर्वे को लाकर विपक्षी दल जहां सामाजिक न्याय की लड़ाई को पिछड़ों को अधिक आरक्षण और उनके उत्थान के लिए सरकारी योजनाएं बनाने का तर्क दे रहा है वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल विपक्ष पर जाति—पाती की राजनीति करने और समाज को बांटने का आरोप लगाते हुए कहा है कि उन्हें विकास रास नहीं आ रहा है। 1990 के दशक में तत्कालीन बीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार की मंडल राजनीति को भले ही भाजपा ने अपनी कमंडल की राजनीति से परास्त कर दिया हो लेकिन जाति आधारित आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ चुका है। 1951 की जनगणना के समय देश में 55 फीसदी के आसपास पिछड़े थे। बिहार की नीतीश कुमार सरकार द्वारा जो सर्वेक्षण कराया गया है उसमें पिछड़ों की आबादी 63 फीसदी से अधिक हो गई है। विपक्ष के नेताओं का कहना है कि आबादी में हिस्सेदारी अनुपात में ही पिछड़ों को आरक्षण मिलना चाहिए। बिहार ने देश में जातीय जनगणना करा कर इतिहास रच दिया है। इससे पहले भी कई राज्यों द्वारा जातीगत जनगणना के प्रयास किये जा चुके हैं यह अलग बात है कि उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिल सकी। इन राज्यों में कर्नाटक, तेलंगाना, उड़ीसा, महाराष्ट्र सहित कई राज्य शामिल है। बिहार में भी जातिगत सर्वेक्षण पर कई बधाएं आई लेकिन बिहार सरकार ने इसे मुकाम तक पहुंचा ही दिया। 2011 में यूपीए सरकार ने देश में आर्थिक सर्वेक्षण कराने का प्रयास किया गया था सरकार की योजना थी कि आर्थिक रूप से पिछड़ों के हितों को ध्यान में रखकर ही आगे की सरकारी योजनाएं बनाई जाए लेकिन सर्वे पूरा होने के बाद भी यह फाइल इस मंत्रालय से उस मंत्रालय तक दौड़ती रही और कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल सका। बिहार सरकार के इस सर्वे ने एक बार फिर इस मुद्दे को चर्चाओं के केंद्र में ला दिया है। सरकार पर अब पूरे देश में जातिगत सर्वेक्षण का दबाव बढ़ना तय है 2024 के चुनाव परिणाम पर इस सर्वे का गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। अभी हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा लाये गए महिला आरक्षण बिल में ओबीसी को आरक्षण से विरत रखा गया था जिस पर तमाम सवाल उठाये गये थे। अन्य पिछड़ा वर्ग जिसे ओबीसी कहा जाता है वर्तमान में उन्हें 27 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है जबकि उनकी समाज में हिस्सेदारी 63 फीसदी है। इस जातीय सर्वे से आरक्षण की व्यवस्था पर अब सवाल उठना लाजिमी है। केंद्र सरकार पर भेदभाव की राजनीति करने का आरोप लगाना भी स्वाभाविक है। देखना दिलचस्प होगा कि 2024 के चुनाव में अब मंडल और कमंडल के लिए होने वाली जंग देश की राजनीति में क्या गुल खिलाती है?