देश की नई संसद में सत्र के पहले दिन एनडीए सरकार ने महिला आरक्षण बिल को इस संकल्प के साथ पेश तो कर दिया है कि इस बार उसे संसद में पारित कर कानूनी जामा अवश्य पहना दिया जाएगा। लेकिन 128वें संविधान संशोधन के रूप में नारी शक्ति वंदन अधिनियम के नाम से लाये जाने वाला महिला आरक्षण बिल लागू कब हो सकेगा? यह सवाल इस बिल के पारित होने के बाद भी बना रहेगा क्योंकि जब तक देश की जनगणना का काम और उसके अनुरूप लोकसभा और राज्य की तमाम विधानसभा सीटों का पुनः परिसीमन तय नहीं होगा तब तक इसको लागू नहीं किया जा सकता है, एक उम्मीद के अनुसार इस कानून पर 2027 से पहले अमल सही नहीं है। ऐसी स्थिति में चार—पांच साल तक इसका कोई लाभ महिलाओं को मिल पाना संभव नहीं है। 1996 में जिस बिल को पहली बार लोकसभा में पेश किया गया था और जो बिल बीते 27 सालों से लंबित पड़ा है भले ही इसके कोई भी कारण रहे हो आने वाले 5 सालों में इस बिल का भविष्य क्या होगा इसे लेकर अभी से कई सवाल उठने शुरू हो गए हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस बिल को देश की आधी आबादी के लिए लाया गया है तो इसे 33 प्रतिशत तक सीमित क्यों रखा गया है। 2011 की जनगणना के हिसाब से देश में महिलाओं का प्रतिशत 48.5 फीसदी था जो अब थोड़ा बहुत बढ़ भी सकता है जब महिलाओं की आबादी 50 फीसदी के करीब है तो उन्हें बराबरी पर लाने की बात करने वाले उन्हें 50 फीसदी की बजाय 33 फीसदी उनका हक क्यों देने पर अटके हुए हैं। एक दूसरा सवाल यह भी है कि कहीं यह महिला आरक्षण बिल भी मोदी सरकार का कोई चुनावी शगुफा तो नहीं है। जब सरकार एक दिन में नोटबंदी का फैसला लागू कर सकती है और कोरोना काल में एक दिन में पूरे देश में कर्फ्यू लगा सकती है तो फिर महिला आरक्षण बिल को लागू करने में चार—पांच साल का इंतजार किस लिए? कहने वालों का तो यह भी कहना है कि 2024 में अगर मोदी सरकार की वापसी नहीं हुई तो इस बिल का भी वही हश्र हो सकता है जो देवगौड़ा सरकार या अटल सरकार और मनमोहन सरकार के समय में हुआ था। इस बिल को लेकर एक और बड़ा सवाल ओबीसी को लेकर भी है जिसे इस आरक्षण के लाभ के दायरे से बाहर रखा गया है। यही नहीं इस बिल को चुनाव से पूर्व लाये जाने को लेकर भी सवाल उठना स्वाभाविक ही है। बीते 9 सालों में मोदी सरकार का क्यों कभी ध्यान इस तरफ नहीं गया क्या यह बिल भाजपा अपने चुनावी लाभ के लिए लेकर आई है। इस बिल से पहले ही आज लोकसभा में इस बिल का श्रेय लेने के मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के बीच जिस तरह की तीखी नोक झोक देखी गई है वह इस बात का साफ संकेत है कि इसके पीछे श्रेय और वोट की राजनीति ही अहम है। महिलाओं के सशक्तिकरण व बराबरी की बात इसके बाद ही आती है। इस महिला आरक्षण की व्यवस्था को अगर जमीन पर उतारा भी जाता है तो वर्तमान लोकसभा सीटों की संख्या के अनुसार महिलाओं की संख्या 80 से बढ़कर 181 हो जाएगी लेकिन सवाल यह है कि क्या देश की आम महिलाएं भी संसद और राज्य विधानसभाओं तक इसके जरिए पहुंच सकेगी या फिर इसका लाभ सिर्फ उन राजनीतिक परिवारों की महिलाओं तक ही सीमित होकर रह जाएगा जो पहले से ही सशक्त व संपन्न है। ऐसी स्थिति में यह साफ है कि देश की आम महिलाओं के वोट तो इस बिल से समेटे ही जा सकते हैं लेकिन इसका कोई वास्तविक लाभ आम महिलाओं को मिल पाना संभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। लेकिन लंबी जद्दोजहद के बाद इस बिल का पास होना ही महिलाओं के लिए सुखद आश्चर्य है तो उन्हें इस पर खुश होना ही चाहिए।