श्रद्धा या सैलानियों का हुजूम

0
186


आस्था और श्रद्धा अध्यात्म का वह अध्याय है जिसके बिना किसी भी धर्म और समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। सभी धर्म, संप्रदाय और जातियों के लोगों द्वारा ईश्वरीय सत्ता को युग युगांतर स्वीकार किए जाने के सत्य को नकारा नहीं जा सकता है। भले ही किसी भी समाज या संप्रदाय के ईस्ट अलग हो या फिर पूजा पाठ की पद्धतियां पृथक पृथक हो लेकिन अलग—अलग मार्गाे से चलकर भी सभी पहुंचते एक ही मुकाम पर हैं। इन दिनों उत्तराखंड राज्य में चार धाम यात्रा चल रही है। जिसे लेकर यह चर्चा छिड़ी हुई है कि इस यात्रा में जो जन सैलाब उमड़ रहा है आस्था और श्रद्धा का सैलाब है या फिर सैलानियों का? इस चर्चा को बल इसलिए भी मिल रहा है क्योंकि जिस उच्च हिमालय क्षेत्राें में यह चारों धाम स्थित है वह अत्यधिक मानवीय गतिविधियों की वहन शीलता के दृष्टिकोण से अत्यंत ही संवेदनशील क्षेत्र है। 2013 में केदार धाम में ग्लेशियर टूटने से जो आपदा आई थी उस आपदा की विभीषिका को इतिहास कभी नहीं भूल सकता है। सवाल यह है कि क्या हम इतिहास से कोई सबक लेना ही नहीं चाहते। उत्तराखंड शासन प्रशासन इस यात्रा के लिए कितनी बेहतर व्यवस्था कर पाता है इसका सच भी सभी जानते हैं। अगर भीड़ को नियंत्रित करने का कोई मेकैनिज्म सरकार के पास नहीं है तो वह कभी भी किसी भी सूरत में न तो बेहतर व्यवस्थाएं कर सकती है और न किसी भी आपदा को रोक सकती है। यात्रा के पहले ही दिन दो यात्रियों की मौत और यमुनोत्री पैदल मार्ग पर 4 घंटे तक यात्रियों के फंसे रहने की खबर इसकी पुष्टि करती है। अब सवाल यह है कि क्या देश दुनिया से उत्तराखंड आने वाले लोगों की यह भीड़ श्रद्धा और आस्था के वशीभूत होकर आने वालों की भीड़ है जी नहीं ऐसा कदाचित भी नहीं है गर्मियों की तपिश और उमस भरे इस मौसम में उत्तराखंड की ठंडी हवाओं और मनोहारी वादियो में घूमने फिरने का मौका मिले और वह चार धाम दर्शन लाभ के साथ हो तो यह तो आम के आम और गुठलियों के दाम वाली कहावत को चरितार्थ करने जैसा ही है। श्रद्धा और आस्था के वशीभूत होकर तो यहां ऐसे श्रद्धालु भी आते हैं जो हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा करके यहां पहुंचते हैं। उन्हें न मार्ग की कोई बाधा खलती है न ही किसी असुविधा से कोई फर्क पड़ता है इस यात्रा में कुछ लोग अपने निजी वाहनों और मित्र मंडली के साथ भी आते हैं जिनका गाना बजाना और नाच गाना अब धामों में भी देखा जा सकता है। रील बनाने वाले लोगों की भी इस यात्रा में कोई कमी नहीं होती। हर साल यात्रा के संपन्न होने के बाद कुछ पर्यावरण के रक्षक मित्र यात्रा मार्ग पर साफ सफाई करने में जुटते हैं। जो बोरा भर भर कर प्लास्टिक व शराब की खाली बोतले लाते हैं। आस्था के आयामों को सैलानियों की मौज मस्ती के स्थल नहीं बनने दिया जाना चाहिए लेकिन यह हैरान करने वाली बात है कि उत्तराखंड सरकार के लिए धार्मिक आस्था और श्रद्धा को धार्मिक पर्यटन कहा जाता रहा है। जबकि पर्यटन और आस्था दो अलग—अलग विषय है। ऐसी स्थिति में सरकार सैलानियों को भला कैसे चार धाम यात्रा से रोक सकती है। लेकिन धामों की वहनीय क्षमता से अधिक लोगों का धामों तक जाने से रोका जाना जरूरी है वरना इसके कभी भी गंभीर परिणाम फिर सामने आ सकते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here