सांप्रदायिक उन्माद चिंतनीय

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इन दिनों देश भर में सांप्रदायिक हिंसा और टकराव की घटनाओं की बाढ़ सी आई हुई है। एक तबका अपने नफरती बयानों से आग में घी डालने का काम में जुटा है तो कुछ राजनीतिक दल और उनके नेताओं द्वारा भी अपने बयान और कृत्यों से सांप्रदायिकता और धार्मिक कटृरवादिता को हवा देने का काम किया जा रहा है। उत्तराखंड भी अब इस तरह की वारदातों से अछूता नहीं रहा है। देश का सबसे शांत राज्य अगर नफरती बयानों और धार्मिक उन्माद की चपेट में आ रहा है तो बुद्धिजीवियों व समाजसेवियों को इसमें चिंतित और परेशान होना स्वाभाविक ही है। बीते दिनों हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में जिस तरह के नफरती बयान सामने आए थे और इसके बाद रुड़की के डांडा जलालपुर में हनुमान जयंती की शोभा यात्रा पर पथराव व हमले की घटना सामने आई तथा हल्द्वानी में हनुमान चालीसा का पाठ करने वालों पर हमला हुआ यह तमाम घटनाएं उत्तराखंड की सभ्यता और संस्कृति के लिए एक बड़ी चुनौती है। भले ही शासन प्रशासन द्वारा अभी हाल में यहां होने वाली महा हिंदू पंचायत को सख्ती से रोक दिया गया हो लेकिन यह आग अभी शांत नहीं हुई है। सांप्रदायिक तनाव और धार्मिक उन्माद की घटनाओं को लेकर शासन—प्रशासन का जो लचर रवैया अब तक रहा है वह भी कम चिंताजनक नहीं है। प्रदेश के कुछ प्रबुद्ध लोगों जिसमें लेखक, पत्रकार और अधिकारी तथा समाजसेवी शामिल हैं, द्वारा मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर उनका ध्यान इस तरफ खींचा गया है और यह अपेक्षा की गई है कि शासन—प्रशासन उन ताकतों का पता लगाएं जो देव भूमि की फिजा को खराब करने पर आमादा है। इन लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई अगर नहीं की गई तो आने वाले समय में इसके गंभीर नतीजे भुगतने होंगे। उत्तराखंड की तुलना उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, या मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से नहीं की जा सकती है क्योंकि उत्तराखंड की संस्कृति और सभ्यता बिल्कुल अलग तरह की है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अत्यंत ही लचीले स्वभाव और प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। हम बाहरी लोगों के सत्यापन का अभियान चलाएं, किसी को कानून व्यवस्था से खिलवाड़ नहीं करने देंगे जैसे बयानों से स्थिति में सुधार नहीं लाया जा सकता है। मुख्यमंत्री धामी को चाहिए कि वह इस तरह की घटनाओं की जिम्मेवारी अधिकारियों के कंधों पर डालें और अगर ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई सुनिश्चित करें। अब तक जो घटनाएं सामने आई हैं वह वास्तव में सुरक्षा एजेंसियों व पुलिस अधिकारियों की लापरवाही का ही नतीजा है। अगर समय रहते इन घटनाओं को रोकने के सख्त कदम उठाए गए तो निश्चित ही वह सब नहीं हो सकता था जो हुआ। जैसे महापंचायत नहीं हुई वैसे ही धर्म संसद को भी रोका जा सकता था।

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