नोटबंदी का सच भूलना ही भला

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आठ नवंबर 2016 का वह दिन अब इतिहास के पन्ने बन चुका है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने राष्ट्रीय संबोधन में इस बात की घोषणा करके सभी को चौंका दिया था कि आज रात 12 बजे के बाद 1000 और 500 के नोट लीगल टेंडर नहीं रहेंगे। सरकार द्वारा कई किस्तों में समयावधि बढ़ाकर देश के लोगों को पुराने नोट बैंकों में जमा करने के लिए 52 दिन का समय दिया गया था। नोटबंदी की घोषणा और नए नोटों के पर्याप्त मात्रा में चलन में आने में 6 माह से भी अधिक का समय लग गया इस दौरान देशवासियों को अनेक तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। बैंकों और एटीएम पर लंबी—लंबी लाइनों के अलावा पुराने नोटों को जलाने, पानी में बहाने और बैंकों द्वारा बैकडोर से पुराने नोटों के बदले नए नोट देने में कमीशन खोरी जैसे अनेक मामले प्रकाश में आए थे जो अब न्यायपालिका की नजरों में बीते समय की बात हो चुका है और सरकार द्वारा नोटबंदी के पीछे जो कारण बताए गए हैं कि सरकार की मंशा जाली नोटों और टेरर फंडिंग और काले धन को समाप्त करना चाहती थी, को सही ठहराया जा चुका है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अदालत ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि नोटबंदी से यह उद्देश्य पूरे हुए या नहीं इस पर विमर्श या बहस का भी अब कोई औचित्य नहीं रहा है क्योंकि 2016 को दोबारा नहीं जिया जा सकता है। सरकार के इस फैसले के पीछे मंशा और नियत ठीक थी। सीधे तौर पर यह कहा जा सकता है कि इससे अर्थव्यवस्था और आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ा इससे कोई लेना—देना नहीं है। सरकार के हिसाब से चलन में जितने भी 1000 और 500 के नोट थे उससे भी कहीं ज्यादा बैंकों में वापस जमा हो गए या यूं कहा जाए कि नोटबंदी ने देश में जितना भी काला धन था उसे सफेद कर दिया। रही आतंकी फंडिंग की बात तो वह भी लगातार जारी है। भले ही सरकार में बैठे लोगों की अंतरात्मा यह जानती हो कि नोटबंदी से सिवाय नुकसान और परेशानी तथा खर्चा खराबी के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ लेकिन ऐसा भी नहीं है वरना सत्ता में बैठे लोग अदालत के इस फैसले पर अपनी पीठ नहीं थपथपा रहे होते और विपक्ष जो इस पर सवाल उठाता रहा है उसे अब कटघरे में खड़ा कर रहे होते। इस नोट बंदी के कारण नए नोट छापने में जो अनावश्यक खर्चा हुआ उसकी तो कहीं गिनती ही नहीं है। खैर अब जो होना था हो चुका है जब देश की सर्वाेच्च अदालत कह रही है कि सब कुछ भूल कर अब आगे बढ़ने में ही भलाई है तो यही ठीक है। लेकिन नोटबंदी और संपूर्ण लॉकडाउन के दौरान जनमानस ने जो पीड़ा झेली और जो नुकसान उठाया है उसकी भरपाई संभव नहीं है यही सच है। भले ही इसे कोई स्वीकार करें या न करें।

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